Tuesday, December 25, 2007

हाट

यह सत्संग चौक है

यह बाजला चौक है

यहाँ हाट लगता है

रोज-रोज प्रतिदिन ।



देश में अनेक ऐसे चौक हैं

गली मुहल्लों में ,गलियों में

जहाँ ऐसा हाट लगता है

रोज-रोज दिन प्रतिदिन ।



साग-सब्जियां नहीं बिकती है यहाँ

न ही बिकते हैं यहाँ

खाद्य -खाद्यान या पशु मवेशी

ये इंसानों का हाट है

यहाँ मनुष्य बिकते हैं

रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।



प्रकृति की सुन्दरतम रचना

बिकती है यहाँ

उनका श्रम बिकता है

खून और पसीना बिकता है

रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।



ऐसा मुकाम भी आता है

जीवन में उसके

बेच कर श्रम भी जब

बुझती नहीं ज्वाला पेट की

तब बिकती है आत्मा उसकी

चेतना बिकती है

बहू बेटियाँ बिकती हैं

घरबार बिकता है

रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।



चढ़ता सूरज वैसे तो

प्रतीक है आशा का

पर चढ़ता सूरज

क्षीण करता है

संभावना इनके बिकने की

आशा निराशा का यह खेल

चलता रहता है
रोज-रोज दिन प्रतिदिन ।




बिकता है वह

खरीदते हैं हम

कीमत कोई और तय करता है

साठ रुपये प्रतिदिन

अपनी कीमत भी नहीं
कर सकता है तय वह
बिकने को मजबूर है
तयशुदा कीमत पर
रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।

हर चीज की कीमत
बढ़ती रहती है
रोज-रोज दिन-प्रतिदिन
पर इनकी कीमत रहती है
स्थिर , गरीबी की तरह ।

वह महज एक कीड़ा है
हम इंसानों के बीच
उसे हम मजदूर कहते हैं
उसे बस रेंगना है
और कुचला जाना है
हमारे अहम तले
रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।


साम्यवाद हो या समाजवाद
या चाहे कोई और वाद
नारे सारे खोखले ही रहेंगे
तब तक , जब तक ये
हाट लगते रहेंगे
आत्मा बिकती रहेगी

चेतना बिकती रहेगी
घरबार बिकते रहेंगे
बहू-बेटियाँ बिकती रहेंगी
रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।

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