Monday, April 28, 2008

मीडिया का कोई ईमान है कि नहीं

जब से हरभजन-श्रीशन्त चांटा विवाद हुआ है, मीडिया, खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हरभजन को विलन बनाने पर उतारू है। ये वही टीवी न्यूज़ चैनेल्स हैं जो साइमंड्स-हरभजन विवाद में साइमंड्स को विलेन और हरभजन को हीरो बताते नहीं थक रहे थे. तब इन्हें हरभजन में कोई बुराई नहीं दिख रही थी और आज उन्हें हरभजन में एक भी अच्छाई नहीं दिख रही है. उनके लिए उन्ही तीखे शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है जो ऑस्ट्रेलिया विवाद के समय साइमंड्स और हेडेन आदि के लिए किए जा रहे थे. इनके पास रटे रटाये हैं संवाद हैं जिनमें सिर्फ़ नामों को परिवर्तित भर कर दिया जाता है. एक तरफा रिपोर्टिंग में न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं है. कोई भी न्यूज़ चैनल मामले को निष्पक्ष रूप से देखने को तैयार नहीं है. हरभजन उग्र हैं पर श्रीशन्त भी क्या कम उग्र हैं उन्हें भी तो बेवजह नाक फुलाकर पंगा लेने की आदत है. हरभजन ने यदि थप्पड़ चलने जैसा अतिवादी कदम उठाया तो उन्हें उकसाने की प्रक्रिया कितनी तीखी रही होगी इसपर विचार करने के लिए कोई तैयार नहीं है. थप्पड़ मारना अगर आइपीअल के कानून में बड़ा अपराध है तो इसके लिए उकसाये जाने पर क्या कोई सज़ा नहीं है. कोई ये क्यों नहीं कह रहा है की गलती श्रीशांत की भी थी भले ही हरभजन ने अपना आपा खोकर बड़ी गलती की है. अगर गलती के लिए सज़ा है तो सज़ा दोनों कोई मिलनी चाहिए. सुनने में आया है कि हरभजन ने श्रीशंत को मैच से पहले ही उनकी इस आदत के ख़िलाफ़ चेतावनी दी थी परन्तु श्रीशंत बाज नही आए। एक कप्तान जो अपने तीनो मैच हार चुका हो उसे मैच हारने के बाद यदि आप उकसाने जायेंगे तो वह बन्दा अपना आपा तो खोयेगा ही. मैच के दौरान उकसाये जाने की प्रक्रिया को तो फ़िर भी एक हद तक जायज़ ठहराया जा सकता है, परन्तु मैच ख़त्म होने के बाद यदि आप विपक्षी कप्तान को जो की न सिर्फ़ आपका सीनियर है बल्कि देश के लिए आपके साथ कंधे से कन्धा मिला कर खेलता भी है उकसाने जायेंगे तो आप थप्पड़ के तो हक़दार हैं ही. और जो सबसे अहम् बात है वो ये कि जब श्रीशंत बात को तूल नहीं देना चाहते हैं ओर हरभजन को भी अपनी गलती का अहसास है तो फ़िर पंच की कहाँ जरूरत है । ओर उनकी टीम मैनेज्मेन्ट के लोग हरभजन पर बैन लगवा कर क्या हासिल करना चाह रहे हैं. यही कि देश एक बेहतरीन स्पिनर की सेवा से वंचित रह जाए. आप क्षेत्रीयता, छुद्र स्वार्थ और अहम् की वजह से अपने ही देश का नुकसान करना चाह रहे हैं और इसके दूरगामी प्रभाव की ओर भी नहीं सोच रहे हैं कि भविष्य में यदि फ़िर कोई हेडेन या साइमंड्स हरभजन को माँ की गाली भी देता है तो क्या हरभजन इसका प्रतिवाद कर सकेंगे. क्या इसके बाद हरभजन एक मैच जिताऊ गेंदबाज बने रह सकेंगे? और मै अनुशासन की बात करने वाले अनुशासन के रहनुमाओं से पूछना चाहता हूँ कि मैच देखने जा रहे छोटे छोटे बच्चों को अधनंगी लड़कियों का डांस दिखलाकर कौन सा अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे हैं।

आई पी एल -मनोरंजन या साजिश?

आख़िर वही हुआ जिसका डर मुझे तब से सता रहा था जबसे आई पी एल नाम का तमाशा शुरू हुआ था । मेरा शुरू से ही ये मानना रहा है कि आई पी एल का ढांचा तैयार ही किया गया है भारतीयों के बीच दरार पैदा करने के लिए । पहले भी भड़ास पर कई लोगों ने ऐसी आशंका जतायी है। हरभजन और श्रीशांत के बीच जो हुआ , वह इस आशंका का एक छोटा सा नमूना है। कुछ और नमूने भी लोगों ने देखे होंगे । द्रविड़ जैसे सम्मानित खिलाड़ी के चौके पर उनके घरेलू मैदान के आलावा कहीं ताली तक नहीं बजती है, सहवाग जैसे लोकप्रिय खिलाड़ी के तूफानी अर्धशतक पर स्टेडियम में सन्नाटा छाया रहता है, अनुरोध करने पर भी एक ताली तक नहीं बजती है । खेल इतना स्वार्थपरक तो कभी नहीं था। दरअसल ये स्वार्थपरता नहीं बल्कि क्षेत्रीयता का जहर है जो लोगों के दिलों में इतने गहरे उतार देने की साजिश है जिसमें एक देश एक लोग का जज्बा घुट कर दम तोड़ दे । मेरी बात अभी कुछ अजीब सी लग सकती है परन्तु इसपर गहरे सोचने की जरूरत है। अब, हरभजन-श्रीशांत का ही मामला लें । किसकी गलती है किसकी कितनी गलती है यह बहस का मुद्दा हो सकता है परन्तु घटना के बाद की प्रतिक्रियाएं सोचनीय हैं । केरला क्रिकेट संघ द्वारा हरभजन को सजा देने की मांग और मुंबई इंडिंयंस द्वारा हरभजन के सपोर्ट में खड़े होना कुछ अच्छा संकेत नहीं है। आई पी एल को डिजाईन ही इस तरह से किया गया है कि इससे क्षेत्रीयता को बढ़ावा मिले। लोग किस खिलाड़ी के लिए ताली बजा रहे हैं यह मुख्य नहीं है , वो सिर्फ़ अपने क्षेत्र के लिए ताली बजा रहे हैं , यह मुख्य भी है और चिंतनीय भी। एक राज ठाकरे काफी नहीं था जो आठ-आठ राज ठाकरे देश को बांटने के लिए कमर कसे खड़े हैं । और हम हैं कि अधनंगी लड़कियों को देख कर ताली बजाने में मशगूल हैं। क्योंकि हम विकसित हो रहे हैं ।

सृष्टि चक्र

असंख्य बिन्दुओं का संग्रह
संग्रह का गमन और पड़ाव
क्षण -क्षण ।

बटोरता अनुभवों के कण
व्यक्तित्व का निर्माण करता
गमन करता
बिन्दुओं का वह संग्रह
क्षण क्षण ।

उसका गमन और पड़ाव
गति और स्थिति उसकी
दोनों एक ही क्षण
विलक्षण ।

ऐसे ही असंख्य विलक्षण
और विश्व गया है बन
बिन्दुओं पर बैठा
इस विश्व को देखता
हमारा मन ।

मन जिसने पूर्णत्व को
इश्वरत्व को
कर दिया है कण कण ।

कविता के रंग

कविता महज शब्द नहीं
अनुगूंज है महासमर की
और कविता लोक की
अंतरात्मा की आवाज भी ।

कविता अभिव्यक्ति है
लोकवेदना की और कविता
आक्रामक प्रतिवाद का
आह्वान भी ।

कविता एक खूबसूरत तर्जुमा है
जीवन के झंझावातों का
और कविता
एक आकर्षक संगीत भी ।

कविता धूप सी
व्याप्त भी हर शू
और कविता
परिवर्तन की पैरोकार भी ।

कविता पराजयबोध
नहीं है कदापि
कविता अपराजेयता की
मिशाल है बल्कि ।

कविता पलायन नहीं है
जीवन संघर्षों से
कविता तो
उम्मीद का उजाला है।

कविता जीवन की टीस भी
और कविता
कवि की
जीजीविषा का संगीत भी ।

कविता संकेत है भविष्य का
और कविता
लेती प्रेरणा है
भूत से भी।

और कविता न कमल
न गुलाब न कैक्टस ही
कविता तो हर मौसम में
महकता गेंदे का फूल है।

Thursday, April 10, 2008

दिल्ली सरकार अब तेल बेचेगी

आज की ताजा ख़बर. शीला दीक्षित अब तेल बेचेंगी. उनके पास और कोई चारा भी नहीं है. अगर वो तेल नहीं बेचेंगी तो उनकी सरकार तेल बेचने चली जायेगी. कल से दिल्ली की गलियों चौराहों पर शीला दीक्षित और उनके मंत्रिमंडल के लोग- तेल ले लो, ६० रूपये किलो तेल ले लो- चिल्लाते नजर आयें तो चौंकिएगा नहीं. मुई राजनीति होती ही है ऐसी. कब किसे तेल बेचना पड़े और कब कौन तेल लेने चला जाय, कुछ कहा नहीं जा सकता है. मंहगाई की मार वैसे तो आम आदमी को झेलनी पड़ रही है पर जनता के पलटवार का क्या नतीजा होता है, शीला दीक्षित जानती हैं और बीजेपी वाले तो इसे भुगत चुके हैं, इसी दिल्ली में. प्याज जैसी निर्जीव चीज कैसे स्वयंभू समझने वाले नेताओं को धूल चटाती है, श्रीमती दीक्षित जानती हैं. आख़िर उन्हें भी तो गद्दी मंहगाई की वजह से हुई पलटवार से ही मिली थी. लिहाजा श्रीमती दीक्षित ने सोचा कि इससे पहले कि उनकी सरकार तेल बेचने चली जाए क्यों न वही तेल बेचना शुरू कर दें. और हाँ, न्यूज़ चैनलों वाले भाइयों की तो बांछें खिल गयी होंगी, इस ख़बर से . कोई आश्चर्य नही अगर भाई लोग टीआरपी के चक्कर में दिल्ली सरकार के मंत्रियों को बाकायदा तेल बेचने के लिए बैठने पर राजी कर लें. मुम्बईया फिल्मों की तरह राजनीति में भी भेड़चाल का बोलवाला है ये तो सभी जानते हैं. अब अगर कल को मनमोहन सिंह एंड पार्टी भी श्रीमती दीक्षित से क्लू ले कर, तेल ले लो-तेल ले लो, शुरू कर दें तो मुझे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा, आपको हो तो हो क्योंकि सत्तामोह भइया आदमी से कुछ भी करा सकता है. बहरहाल हम तो बैठ कर तेल देखेंगे और तेल की धार देखेंगे.

Wednesday, April 9, 2008

इस हाथ ले, उस हाथ दे

आज का टाइम्स ऑफ़ इंडिया पलट रहा था तो अचानक एक विज्ञापन पर नजर चली गयी. आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने राज्य में गरीबी रेखा से नीचे जी रहे लोगों को २ रूपये किलो चावल मुहैय्या कराने जा रहे हैं.बड़ी खुशी की बात है. पर एक चौथाई से भी ज्यादा के पन्ने पर, एक अखबार के दिल्ली एडिशन में, वो भी अंगरेजी में छपे इस विज्ञापन का औचित्य समझ में नहीं आया. किसे दिखाने के लिए है ये विज्ञापन. कम से कम पचास हजार का तो होगा ही ये विज्ञापन. और अखबारों में भी छपे होंगे. और भी जगहों से छपे होंगे. मुझे विज्ञापनों के रेट का ठीक से अंदाजा तो नहीं है परन्तु प्रचार के सारे खर्चों को जोडें तो एकाध करोड़ का खर्च तो बैठा ही होगा. इतने पैसों में कितना चावल, दो रूपये के हिसाब से आ जाता ये आप ख़ुद ही जोड़ लें. खैर ये तो एक बात हुई. मजेदार बात ये है कि गरीबों को दो रूपये किलो चावल देने का सपना रेड्डी जी पिछले चार सालों से संजो रहे थे और अब जा कर उनका सपना साकार हुआ. चुनावों से कुछ दिन पहले. क्या टाइमिंग है. सपने भी टाइम देख कर साकार होने लगे हैं. कोई रेड्डी जी से पूछे इन चार सालों में उन्हें किस मजबूरी ने रोका था और प्रदेश के साथ साथ लोकसभा चुनावों से ठीक पहले अचानक ऐसा क्या हो गया कि उनकी सारी मजबूरियां एकदम से ख़त्म हो गयीं. और कोई उनसे ये भी पूछे कि गरीब बाप की बेटी की जवानी की तरह रोज बढ़ती मंहगाई के इस दौर में, जिसके लिए उन्हीं की पार्टी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार जिम्मेदार है, आंध्रा के ग़रीब, फकत चावल ही फांकेंगे या ४०-४५ रूपये किलो वाली दाल या दाल से बनने वाली चीजें भी मिलाएँगे. इतना ही नहीं रेड्डी साहब ने फौरन ही इस दरयादिली की कीमत भी वसूलने की जुगत कर ली. उन्होंने लोगों से इस favour को appreciate भी करने की अपील की है. अब इस apprecition का वोटों से नाता तो सभी जानते हैं. हद है भई . अभी लोगों के पेट में चावल गया भी नहीं है और उन्होंने कीमत वसूलने का काम शुरू कर दिया. इसे कहते हैं इस हाथ ले उस हाथ दे . वरुण राय

रिक्शेवाले का राजनीतिक ज्ञान

आज बड़े दिनों बाद रिक्शे पर बैठने का संयोग हुआ. भाड़ा तय करने के दौरान मंहगाई पर चर्चा हुई और उसके तर्कों से सहमत होकर मैंने उसे उसके मनमाफिक भाड़ा देना स्वीकार कर लिया. मैंने यूँ ही टाइम पास करने के लिए राजनितिक चर्चा शुरू कर दी. प्रदीप साहा,जो उसका नाम था,चूंकि पश्चिम बंगाल के मालदा जिले का रहने वाला था, इसलिए मैंने केन्द्र सरकार में वामपंथी दलों की भूमिका के बारे में चर्चा शुरू कर दी. चर्चा के दौरान मुझे उसके राजनीतिक ज्ञान पर हैरत हो रही थी. हालांकि वामपंथियों की भूमिका से वह असंतुष्ट था परन्तु भीषण मंहगाई के लिए वह कांग्रेस को ही जिम्मेदार मान रहा था. उसके अनुसार वामपंथी तो मंहगाई से स्वयं असंतुष्ट हैं. मैंने जब पूछा कि अगर वामपंथी सरकार से संतुष्ट नहीं हैं तो समर्थन वापस क्यों नहीं लेते हैं. इसपर जानते हैं उसने क्या कहा- वामपंथी बेवकूफ थोड़े न हैं. सत्तासुख का ये अवसर फ़िर मिले न मिले इसलिए समर्थन देना उनकी मजबूरी है. और हो हल्ला इसलिए मचाते रहते हैं कि बदनामी का सारा ठीकरा कांग्रेस के सर फूटे और वो बेदाग बने रहें. सबसे हैरत हुई मुझे परमाणु करार पर वामपंथियों के विरोध पर उसके विचार जानकर. उसका कहना था कि वामपंथियों का विरोध मात्र दिखावा है. उनका असल मकसद तो सरकार की इस मुद्दे पर बांह मड़ोड़ कर अपना उल्लू सीधा करते रहना है. मुझे अब उसकी बातों में मजा आने लगा था. मैंने जब सरकार के भविष्य के बारे में उसका विचार जानना चाहा तो एक राजनीतिक विशेषज्ञ की भांति उसने कहा कि चुनाव तो अब अपनी नीयत समय पर ही होंगें पर इस गठबंधन का दुबारा सत्ता में आना मुश्किल है. उसकी नजर में बीजेपी सत्ता में आ सकती है परन्तु उसे भी गठबंधन सरकार ही चलानी होगी. हालांकि बीजेपी से भी उसे कोई ख़ास उम्मीद नहीं है. उसका मानना है कि सभी राजनीतिक दल और सभी नेता एक जैसे हैं. मजे की बात है कि जिस गठबंधन के सहारे आजकल की सरकारें चल रही हैं, एक रिक्शे वाले को भी उससे चिढ है. वर्तमान राजनीति की अधिकांश बुराईयों के लिए वह भी गठबंधन की मजबूरियों को ही जिम्मेदार मानता है. आपको हैरत होगी कि प्रदीप साहा मैट्रिक पास भी नहीं है और देश के बारे में इतना सोचता है जितना हमारे नेता शायद ही सोचते होंगे. मैंने इस बाबत उससे पूछा भी. जानते हैं उसने क्या जबाव दिया ? उसने कहा - हमारा देश है साहब. इसके अच्छे बुरे का सोचना तो पड़ेगा . मैं हैरान हूँ कि जिस देश का एक रिक्शा वाला भी इतना जागरूक है उस देश में सड़े हुए नेता चुनकर कैसे आ जाते हैं और उनके हाथ में सत्ता कैसे चली जाती है? काश, हमारे रहनुमा कम से कम उस रिक्शेवाले की तरह सोच पाते.

ज्वालामुखी

ऊपर से शांत कितना
भीतर से
आतुर
एक ज्वालामुखी
फटने को ।
जिंदगी दुविधा में
शांत रहे या
फट जाए
अकुलाकर ।
तुमुल कोलाहल
अन्दर
ऊपर
नीरवता सी छाई
द्वंद भरा यह
जीवन
कब तक?
अंतस्तल बिंधे हुए
वेदना का स्वर
मौन
किसे किसकी
ख़बर
स्वयं में
गम सभी ।
प्राण निस्तेज
भावनाएं शून्य
जिंदा होने का
एहसास दिलाती
सिर्फ़
एक धड़कन।

वरुण राय

Tuesday, April 8, 2008

बीजेपी की पुचकारू राजनीति

सुना है बीजेपी मदन लाल खुराना , उमा भारती और बाबूलाल मरांडी को ,जिन्हें उन्होंने कुछ अरसे पहले लतिया कर भगा दिया था , फ़िर से पुचकार रही है। और पुचकारे भी क्यों नहीं। पुचकारने का टाइम जो आ गया है । लोकसभा चुनाव सिर पर है। प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग के वर्षों से संजोये सपने के साकार हो सकने की सम्भावना का अन्तिम अवसर है। इसके लिए जीवनी तक लिख डाली । ये निगोड़ी जीवनी लेखन की कला भी इधर कुछ ज्यादा ही फैशन में है। लेकिन भाई प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग के हौसले की दाद देनी होगी। जिनके भी बारे में अपनी किताब में बुरा लिखा, उनसें चुन-चुन कर किताब के लोकार्पण समारोह में बुलाया। खैर, लगता है मैं भटक गया। मैं कह रहा था कि बीजेपी में अभी पुचकारने का दौड़ चल रहा है। यहाँ तक कि मदन लाल खुराना जैसे अव्काश्प्रप्ती के दरवाजे पर खड़े नेताओं को भी पुचकारा जा रहा है। खुराना जी तो खैर 'पुचकृत भी हो गए हैं। केशु भाई पटेल को भी राज्य सभा का चारा दिया गया है। बावजूद इसके कि अभी हाल के गुजरात चुनावों में ही नरेन्द्र मोदी ने उन्हें उनकी औकात बता दी थी। कोई कसर जो नहीं छोड़नी है। मदद न कर पाएं तो कम से कम टांग तो नहीं खीचेंगे। और उमा बहन का तो मुझे लगता है "जोड़े से फ़िर न जुड़े , जुड़े गाँठ परि जाय " वाला हाल है। कब तमक के चल देंगी कोई भरोसा नहीं। एक बात गौर किया है आपने । उमा भरती ,ममता बनर्जी ,मायावती और जयललिता की चौकड़ी में एक समानता है। नहीं, दो समानता है। एक तो ये कि ये सभी महिलाएं हैं और दूसरी कि चारों की चारों बेवफा हैं। किसी एक के साथ इनका गठबंधन टिकता ही नहीं। मैं फ़िर विषयांतर हो गया। खैर, एक बाबूलाल मरांडी है झारखण्ड में जिनको सबसे ज्यादा पुचकारने की जरूरत है बीजेपी को। उनकी घरवापसी बीजेपी के लिए फायदेमंद हो सकती है। झारखण्ड में उनकी कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है। झारखण्ड के नेताओं में तो प्रदेश को बरबाद करने की जैसे होड़ लगी हुई है। ऐसा नहीं है कि बाबूलाल मरांडी एकदम चकाचक हैं। साफ सुथरे , सुधरे हुए। परन्तु झारखण्ड की राजनीतिक टोकरी में वे सबसे कम सादे हुए सेब हैं। देखते हैं प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग की इस पुचकारू राजनीति उनके सपनों के साकार होने में कितना सहायक होती है। आमीन ।
वरुण राय