Sunday, May 4, 2008

राज ठाकरे मानसिक रोग से ग्रस्त हैं

मुझे लगता है राज ठाकरे किसी गंभीर मानसिक रोग से ग्रस्त हैं क्योंकि जिस तरह से वो जहर उगल रहे हैं वैसा कोई स्वस्थ आदमी तो नहीं कर सकता है। अपना राजनैतिक वजूद बनाने के लिए कोई इस स्तर तक कैसे जा सकता है। उनकी सभाओं में जुटने वाले लोगों को शायद पता नहीं है कि राज ठाकरे सिर्फ़ अपने व्यक्तिगत राजनीतिक स्वार्थ के लिए उन्हें एक ऐसी अंधेरी सुरंग में ठेल रहे हैं जहाँ उन्हें जान माल की हानि के अलावा कुछ हासिल नहीं होने वाला है। हाँ मराठी- गैरामराठी के नाम पर राज की पार्टी को दोचार विधानसभा की सीटें अवस्य हासिल हो जा सकती हैं। कभी बाल ठाकरे ने भी यही फार्मूला अपनाया था अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए और अब राज जो कभी बालासाहेब के उत्तराधिकारी माने जाते थे आज उन्हीं की दवा उन्हें पिला रहे हैं.दरअसल राज को न मराठियों की भलाई से कुछ लेना-देना है और न ही उन्हें गैरमराठियों से कोई अदावत है. उस बेचारे को तो अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाना है. उस बेचारे के पास अपने चाचा बाल ठाकरे की दी हुई एक शिक्षा है, जिसे उपयोग कर वो अपना राजनीतिक वजूद बचाने की कोशिश कर रहा है. और तो उनके पास कोई राजनीतिक आधार है नहीं . अभी कल तक शिवसेना की विरासत सँभालने की उम्मीद में बाल ठाकरे की उंगली पकड़ कर घूम रहे थे परन्तु जब देखा कि शिवसेना की राजनीती की दुकान तो उद्धव के नाम की जा रही है तो बालासाहेब की उंगली छुड़ा कर भाग लिए. अब शिवसेना के राजनीतिक गर्भ में राज ने जो नफरत की तालीम पायी है वो उसी का उपयोग कर रहे हैं. परन्तु महाराष्ट्र के मराठी भाइयों को एक बात समझनी चाहिए कि राज और बाल ठाकरे दोनों ही मराठी हैं लेकिन उन्होंने एक दूसरे के हित का तो ध्यान नहीं रखा और किसी गैर मराठी ने तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ा फ़िर वो गैर मराठियों के विरुद्ध क्यों हो गए. सिर्फ़ इसलिए कि इस देश में जहाँ जनाधार विहीन लोग प्रधानमंत्री बने हुए हैं वहां जाति,धर्म,भाषा,साम्प्रादय और क्षेत्रीयता के नाम पर लोगों को बांटना बेहद आसान है. न महाराष्ट्र सरकार राज के इस नफ़रत फैलाओ अभियान पर लगाम लगना चाहती है और न ही केन्द्र सरकार. मनमोहन सिंह ने तो इसपर एक बयान देना भी उचित नहीं समझा. सवाल उठता है कि अगर सरकार कुछ नहीं कर रही है तो क्या हम आम लोग इसका विरोध नहीं करेंगे, चाहे हम मराठी हों या गैर मराठी. मीडिया भी राज के बयानों और उनकी सभाओं का बहिष्कार कर उनके मंसूबों पर बहुत हद तक अंकुश लगा सकता है. पर क्या ऐसा होगा ? देखते हैं.

न्यूज चैनलों पर भारी पड़ता चौबीस घंटा

न्यूज चैनलों में जब चौबीस घंटे न्यूज दिखाने की होड़ शुरू हुई थी तो बड़ा शोर शराबा हुआ था । पल-पल की ख़बर! हर पल की ख़बर ! पर समय बीतने के साथ ये चौबीस घंटे इनपर अब भारी पड़ने लगे हैं। कहाँ से लायें इतनी ख़बर । फ़िर शुरू हुआ ख़बरों को बार-बार, लगातार दिखाने का दौड़ । पर इससे जो नया है वही न्यूज है वाला फंदा ही बदल गया। सुबह से शाम तक एक ही न्यूज जब तक कि कुछ नया हाथ न लग जाए । इसके बाद न्यूज को खींचने का दौड़ शुरू हुआ। समाचार की दुनिया में जिसे फॉलोअप कहा जाता है। जैसे सुनीता विलियम्स ने अन्तरिक्ष में जा कर न्यूज बनने लायक काम किया(मैं सुनीता की उपलब्धि को कम नहीं कर रहा हूँ) तो उनकी सारी पसंद नापसंद भी न्यूज बन गया । खाने में क्या पसंद है, नहीं है आदि-आदि। इनके सारे संबंधियों को पकड़ कर न्यूज बनाया जाने लगा। अभी एक मई को महाबली खली की घर वापसी पर जी न्यूज ने तकरीबन एक घंटे का कार्यक्रम दिखाया गया । उनके पैट्रिक गाँव में उनका मकान बन रहा है। अब खली न्यूज हैं तो उनका बनता हा माकन भी न्यूज हैऔर उसमें काम करने वाले मिस्त्री भी न्यूज है। खली के दोस्त भी न्यूज हैं और बचपन में खली लोटा लेकर कहाँ फारिग होने जाते थे शायद ये भी न्यूज है। पता नहीं इसे क्यूं छोड़ दिया उनलोगों ने। अभी एकाध सप्ताह पहले आजतक तो हाथ धोकर खली के पीछे पड़ गया था । उनकी हार की ख़बर भी उसी शान और जज्बे के साथ दिखायी जा रही थी जिस तरह क्रिकेट में भारत की जीत को दिखाया जाता है। इधर खुछ दिनों से टाईम पास करने के लिए आई पी एल नाम का झुनझुना हाथ लग गया है। वो भी अधनंगी लड़कियों के लटकों-झटकों वाला बिकाऊ झुनझुना । जब जी में आया बैठ गए झुनझुना लेकर । टाईम काटने के लिए ये चीजें भी जब नाकाफी रहीं तो मनोरंजन चैनलों की चीजें उठाकर पडोसने लगे । कभी धारावाहिकों की कहानी तो कभी लाफ्टर शोज के फुटेज । धारावाहिकों से डर कर यदि आपने न्यूज चैनल ऑन किया है तो यहाँ भी आपकी खैर नहीं है। सास बहू और साजिश को वहां नहीं झेला है तो यहाँ झेलिये । बच कर कहाँ जायेंगे। दाऊद के पीछे पड़े तो उसे इतनी बार दिखाया कि अँधा भी दाऊद को पहचान ले। कभी कभी तो ये न्यूज चैनल वाले ऐसा खौफ पैदा कर देते है कि पूछिए मत। प्रलय होने वाला है। सृष्टि ख़त्म होने वाली है। अरे भाई, सृष्टि जब ख़त्म होगी तब होगी , अभी से लोगों को क्यों हलकान कर रहे हो । भूत प्रेतों वाली चीजें तो अब न्यूज चैनलों का अहम् हिस्सा बन गयी हैं । और प्रस्तुतकर्ता भी पता नहीं कहाँ से ढूंढ कर लाते हैं। कहानी से पहले इन्हें देख कर ही डर लगता है। चैन से सोना है तो जाग जाओ । अरे भइया , जब जग ही गए तो सोयेंगे भूत या कत्ल देख कर? बलात्कार की खबर इतने उत्साह से दिखाते हैं कि क्या कहें। और हाँ, सबसे अद्भुत तो इनका ब्रेकिंग न्यूज होता है. ब्रेकिंग न्यूज- सोनिया गाँधी की नींद खुल गयी. ब्रेकिंग न्यूज- फलाने टीम की मीटिंग ख़त्म हुई. ब्रेकिंग न्यूज- राहुल गाँधी आज टहलने निकले . किसी दिन आप देखेंगे - बकरी ने बच्चा दिया - ब्रेकिंग न्यूज . ब्रेकिंग न्यूज की एक और खासियत है- यह कई चैनलों पर एक साथ दिखाया जाता है. एक और बड़ी मजेदार चीज होती है इन न्यूज चैनलों में. किसी मुद्दे पर बहस के लिए अतिथि बुलाये जाते हैं. अपेक्षा ये रहती है कि अतिथि बोलेंगे और प्रस्तुतकर्ता समन्वय का काम करेंगे परन्तु अतिथि बोलने के लिए मुंह खोलते ही हैं कि प्रस्तुतकर्ता बोल पड़ते हैं अतिथि को बीच में ही चुप करा दिया जाता है. और संयोग से बहस किसी नतीजे पर पहुँचता प्रतीत होता है तो इनका टाईम ही ख़त्म हो जाता है और अधिकांश बहस बिना किसी तीजे पर पहुंचे ही ख़त्म हो जाती है. आशा ये की जाती थी कि न्यूज चैनलों की बढती तादाद से पैदा हुई स्पर्धा से इनमें गुणात्मक सुधार होगा, कुछ अच्छी चीजें देखने सुनने को मिलेंगी पर हुआ इसका उल्टा . न्यूज चैनलों का स्तर दिन-बी-दिन गिरता ही चला गया . ईश्वर इन्हें सुधार की प्रेरणा दे.

Monday, April 28, 2008

मीडिया का कोई ईमान है कि नहीं

जब से हरभजन-श्रीशन्त चांटा विवाद हुआ है, मीडिया, खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हरभजन को विलन बनाने पर उतारू है। ये वही टीवी न्यूज़ चैनेल्स हैं जो साइमंड्स-हरभजन विवाद में साइमंड्स को विलेन और हरभजन को हीरो बताते नहीं थक रहे थे. तब इन्हें हरभजन में कोई बुराई नहीं दिख रही थी और आज उन्हें हरभजन में एक भी अच्छाई नहीं दिख रही है. उनके लिए उन्ही तीखे शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है जो ऑस्ट्रेलिया विवाद के समय साइमंड्स और हेडेन आदि के लिए किए जा रहे थे. इनके पास रटे रटाये हैं संवाद हैं जिनमें सिर्फ़ नामों को परिवर्तित भर कर दिया जाता है. एक तरफा रिपोर्टिंग में न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं है. कोई भी न्यूज़ चैनल मामले को निष्पक्ष रूप से देखने को तैयार नहीं है. हरभजन उग्र हैं पर श्रीशन्त भी क्या कम उग्र हैं उन्हें भी तो बेवजह नाक फुलाकर पंगा लेने की आदत है. हरभजन ने यदि थप्पड़ चलने जैसा अतिवादी कदम उठाया तो उन्हें उकसाने की प्रक्रिया कितनी तीखी रही होगी इसपर विचार करने के लिए कोई तैयार नहीं है. थप्पड़ मारना अगर आइपीअल के कानून में बड़ा अपराध है तो इसके लिए उकसाये जाने पर क्या कोई सज़ा नहीं है. कोई ये क्यों नहीं कह रहा है की गलती श्रीशांत की भी थी भले ही हरभजन ने अपना आपा खोकर बड़ी गलती की है. अगर गलती के लिए सज़ा है तो सज़ा दोनों कोई मिलनी चाहिए. सुनने में आया है कि हरभजन ने श्रीशंत को मैच से पहले ही उनकी इस आदत के ख़िलाफ़ चेतावनी दी थी परन्तु श्रीशंत बाज नही आए। एक कप्तान जो अपने तीनो मैच हार चुका हो उसे मैच हारने के बाद यदि आप उकसाने जायेंगे तो वह बन्दा अपना आपा तो खोयेगा ही. मैच के दौरान उकसाये जाने की प्रक्रिया को तो फ़िर भी एक हद तक जायज़ ठहराया जा सकता है, परन्तु मैच ख़त्म होने के बाद यदि आप विपक्षी कप्तान को जो की न सिर्फ़ आपका सीनियर है बल्कि देश के लिए आपके साथ कंधे से कन्धा मिला कर खेलता भी है उकसाने जायेंगे तो आप थप्पड़ के तो हक़दार हैं ही. और जो सबसे अहम् बात है वो ये कि जब श्रीशंत बात को तूल नहीं देना चाहते हैं ओर हरभजन को भी अपनी गलती का अहसास है तो फ़िर पंच की कहाँ जरूरत है । ओर उनकी टीम मैनेज्मेन्ट के लोग हरभजन पर बैन लगवा कर क्या हासिल करना चाह रहे हैं. यही कि देश एक बेहतरीन स्पिनर की सेवा से वंचित रह जाए. आप क्षेत्रीयता, छुद्र स्वार्थ और अहम् की वजह से अपने ही देश का नुकसान करना चाह रहे हैं और इसके दूरगामी प्रभाव की ओर भी नहीं सोच रहे हैं कि भविष्य में यदि फ़िर कोई हेडेन या साइमंड्स हरभजन को माँ की गाली भी देता है तो क्या हरभजन इसका प्रतिवाद कर सकेंगे. क्या इसके बाद हरभजन एक मैच जिताऊ गेंदबाज बने रह सकेंगे? और मै अनुशासन की बात करने वाले अनुशासन के रहनुमाओं से पूछना चाहता हूँ कि मैच देखने जा रहे छोटे छोटे बच्चों को अधनंगी लड़कियों का डांस दिखलाकर कौन सा अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे हैं।

आई पी एल -मनोरंजन या साजिश?

आख़िर वही हुआ जिसका डर मुझे तब से सता रहा था जबसे आई पी एल नाम का तमाशा शुरू हुआ था । मेरा शुरू से ही ये मानना रहा है कि आई पी एल का ढांचा तैयार ही किया गया है भारतीयों के बीच दरार पैदा करने के लिए । पहले भी भड़ास पर कई लोगों ने ऐसी आशंका जतायी है। हरभजन और श्रीशांत के बीच जो हुआ , वह इस आशंका का एक छोटा सा नमूना है। कुछ और नमूने भी लोगों ने देखे होंगे । द्रविड़ जैसे सम्मानित खिलाड़ी के चौके पर उनके घरेलू मैदान के आलावा कहीं ताली तक नहीं बजती है, सहवाग जैसे लोकप्रिय खिलाड़ी के तूफानी अर्धशतक पर स्टेडियम में सन्नाटा छाया रहता है, अनुरोध करने पर भी एक ताली तक नहीं बजती है । खेल इतना स्वार्थपरक तो कभी नहीं था। दरअसल ये स्वार्थपरता नहीं बल्कि क्षेत्रीयता का जहर है जो लोगों के दिलों में इतने गहरे उतार देने की साजिश है जिसमें एक देश एक लोग का जज्बा घुट कर दम तोड़ दे । मेरी बात अभी कुछ अजीब सी लग सकती है परन्तु इसपर गहरे सोचने की जरूरत है। अब, हरभजन-श्रीशांत का ही मामला लें । किसकी गलती है किसकी कितनी गलती है यह बहस का मुद्दा हो सकता है परन्तु घटना के बाद की प्रतिक्रियाएं सोचनीय हैं । केरला क्रिकेट संघ द्वारा हरभजन को सजा देने की मांग और मुंबई इंडिंयंस द्वारा हरभजन के सपोर्ट में खड़े होना कुछ अच्छा संकेत नहीं है। आई पी एल को डिजाईन ही इस तरह से किया गया है कि इससे क्षेत्रीयता को बढ़ावा मिले। लोग किस खिलाड़ी के लिए ताली बजा रहे हैं यह मुख्य नहीं है , वो सिर्फ़ अपने क्षेत्र के लिए ताली बजा रहे हैं , यह मुख्य भी है और चिंतनीय भी। एक राज ठाकरे काफी नहीं था जो आठ-आठ राज ठाकरे देश को बांटने के लिए कमर कसे खड़े हैं । और हम हैं कि अधनंगी लड़कियों को देख कर ताली बजाने में मशगूल हैं। क्योंकि हम विकसित हो रहे हैं ।

सृष्टि चक्र

असंख्य बिन्दुओं का संग्रह
संग्रह का गमन और पड़ाव
क्षण -क्षण ।

बटोरता अनुभवों के कण
व्यक्तित्व का निर्माण करता
गमन करता
बिन्दुओं का वह संग्रह
क्षण क्षण ।

उसका गमन और पड़ाव
गति और स्थिति उसकी
दोनों एक ही क्षण
विलक्षण ।

ऐसे ही असंख्य विलक्षण
और विश्व गया है बन
बिन्दुओं पर बैठा
इस विश्व को देखता
हमारा मन ।

मन जिसने पूर्णत्व को
इश्वरत्व को
कर दिया है कण कण ।

कविता के रंग

कविता महज शब्द नहीं
अनुगूंज है महासमर की
और कविता लोक की
अंतरात्मा की आवाज भी ।

कविता अभिव्यक्ति है
लोकवेदना की और कविता
आक्रामक प्रतिवाद का
आह्वान भी ।

कविता एक खूबसूरत तर्जुमा है
जीवन के झंझावातों का
और कविता
एक आकर्षक संगीत भी ।

कविता धूप सी
व्याप्त भी हर शू
और कविता
परिवर्तन की पैरोकार भी ।

कविता पराजयबोध
नहीं है कदापि
कविता अपराजेयता की
मिशाल है बल्कि ।

कविता पलायन नहीं है
जीवन संघर्षों से
कविता तो
उम्मीद का उजाला है।

कविता जीवन की टीस भी
और कविता
कवि की
जीजीविषा का संगीत भी ।

कविता संकेत है भविष्य का
और कविता
लेती प्रेरणा है
भूत से भी।

और कविता न कमल
न गुलाब न कैक्टस ही
कविता तो हर मौसम में
महकता गेंदे का फूल है।

Thursday, April 10, 2008

दिल्ली सरकार अब तेल बेचेगी

आज की ताजा ख़बर. शीला दीक्षित अब तेल बेचेंगी. उनके पास और कोई चारा भी नहीं है. अगर वो तेल नहीं बेचेंगी तो उनकी सरकार तेल बेचने चली जायेगी. कल से दिल्ली की गलियों चौराहों पर शीला दीक्षित और उनके मंत्रिमंडल के लोग- तेल ले लो, ६० रूपये किलो तेल ले लो- चिल्लाते नजर आयें तो चौंकिएगा नहीं. मुई राजनीति होती ही है ऐसी. कब किसे तेल बेचना पड़े और कब कौन तेल लेने चला जाय, कुछ कहा नहीं जा सकता है. मंहगाई की मार वैसे तो आम आदमी को झेलनी पड़ रही है पर जनता के पलटवार का क्या नतीजा होता है, शीला दीक्षित जानती हैं और बीजेपी वाले तो इसे भुगत चुके हैं, इसी दिल्ली में. प्याज जैसी निर्जीव चीज कैसे स्वयंभू समझने वाले नेताओं को धूल चटाती है, श्रीमती दीक्षित जानती हैं. आख़िर उन्हें भी तो गद्दी मंहगाई की वजह से हुई पलटवार से ही मिली थी. लिहाजा श्रीमती दीक्षित ने सोचा कि इससे पहले कि उनकी सरकार तेल बेचने चली जाए क्यों न वही तेल बेचना शुरू कर दें. और हाँ, न्यूज़ चैनलों वाले भाइयों की तो बांछें खिल गयी होंगी, इस ख़बर से . कोई आश्चर्य नही अगर भाई लोग टीआरपी के चक्कर में दिल्ली सरकार के मंत्रियों को बाकायदा तेल बेचने के लिए बैठने पर राजी कर लें. मुम्बईया फिल्मों की तरह राजनीति में भी भेड़चाल का बोलवाला है ये तो सभी जानते हैं. अब अगर कल को मनमोहन सिंह एंड पार्टी भी श्रीमती दीक्षित से क्लू ले कर, तेल ले लो-तेल ले लो, शुरू कर दें तो मुझे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा, आपको हो तो हो क्योंकि सत्तामोह भइया आदमी से कुछ भी करा सकता है. बहरहाल हम तो बैठ कर तेल देखेंगे और तेल की धार देखेंगे.

Wednesday, April 9, 2008

इस हाथ ले, उस हाथ दे

आज का टाइम्स ऑफ़ इंडिया पलट रहा था तो अचानक एक विज्ञापन पर नजर चली गयी. आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने राज्य में गरीबी रेखा से नीचे जी रहे लोगों को २ रूपये किलो चावल मुहैय्या कराने जा रहे हैं.बड़ी खुशी की बात है. पर एक चौथाई से भी ज्यादा के पन्ने पर, एक अखबार के दिल्ली एडिशन में, वो भी अंगरेजी में छपे इस विज्ञापन का औचित्य समझ में नहीं आया. किसे दिखाने के लिए है ये विज्ञापन. कम से कम पचास हजार का तो होगा ही ये विज्ञापन. और अखबारों में भी छपे होंगे. और भी जगहों से छपे होंगे. मुझे विज्ञापनों के रेट का ठीक से अंदाजा तो नहीं है परन्तु प्रचार के सारे खर्चों को जोडें तो एकाध करोड़ का खर्च तो बैठा ही होगा. इतने पैसों में कितना चावल, दो रूपये के हिसाब से आ जाता ये आप ख़ुद ही जोड़ लें. खैर ये तो एक बात हुई. मजेदार बात ये है कि गरीबों को दो रूपये किलो चावल देने का सपना रेड्डी जी पिछले चार सालों से संजो रहे थे और अब जा कर उनका सपना साकार हुआ. चुनावों से कुछ दिन पहले. क्या टाइमिंग है. सपने भी टाइम देख कर साकार होने लगे हैं. कोई रेड्डी जी से पूछे इन चार सालों में उन्हें किस मजबूरी ने रोका था और प्रदेश के साथ साथ लोकसभा चुनावों से ठीक पहले अचानक ऐसा क्या हो गया कि उनकी सारी मजबूरियां एकदम से ख़त्म हो गयीं. और कोई उनसे ये भी पूछे कि गरीब बाप की बेटी की जवानी की तरह रोज बढ़ती मंहगाई के इस दौर में, जिसके लिए उन्हीं की पार्टी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार जिम्मेदार है, आंध्रा के ग़रीब, फकत चावल ही फांकेंगे या ४०-४५ रूपये किलो वाली दाल या दाल से बनने वाली चीजें भी मिलाएँगे. इतना ही नहीं रेड्डी साहब ने फौरन ही इस दरयादिली की कीमत भी वसूलने की जुगत कर ली. उन्होंने लोगों से इस favour को appreciate भी करने की अपील की है. अब इस apprecition का वोटों से नाता तो सभी जानते हैं. हद है भई . अभी लोगों के पेट में चावल गया भी नहीं है और उन्होंने कीमत वसूलने का काम शुरू कर दिया. इसे कहते हैं इस हाथ ले उस हाथ दे . वरुण राय

रिक्शेवाले का राजनीतिक ज्ञान

आज बड़े दिनों बाद रिक्शे पर बैठने का संयोग हुआ. भाड़ा तय करने के दौरान मंहगाई पर चर्चा हुई और उसके तर्कों से सहमत होकर मैंने उसे उसके मनमाफिक भाड़ा देना स्वीकार कर लिया. मैंने यूँ ही टाइम पास करने के लिए राजनितिक चर्चा शुरू कर दी. प्रदीप साहा,जो उसका नाम था,चूंकि पश्चिम बंगाल के मालदा जिले का रहने वाला था, इसलिए मैंने केन्द्र सरकार में वामपंथी दलों की भूमिका के बारे में चर्चा शुरू कर दी. चर्चा के दौरान मुझे उसके राजनीतिक ज्ञान पर हैरत हो रही थी. हालांकि वामपंथियों की भूमिका से वह असंतुष्ट था परन्तु भीषण मंहगाई के लिए वह कांग्रेस को ही जिम्मेदार मान रहा था. उसके अनुसार वामपंथी तो मंहगाई से स्वयं असंतुष्ट हैं. मैंने जब पूछा कि अगर वामपंथी सरकार से संतुष्ट नहीं हैं तो समर्थन वापस क्यों नहीं लेते हैं. इसपर जानते हैं उसने क्या कहा- वामपंथी बेवकूफ थोड़े न हैं. सत्तासुख का ये अवसर फ़िर मिले न मिले इसलिए समर्थन देना उनकी मजबूरी है. और हो हल्ला इसलिए मचाते रहते हैं कि बदनामी का सारा ठीकरा कांग्रेस के सर फूटे और वो बेदाग बने रहें. सबसे हैरत हुई मुझे परमाणु करार पर वामपंथियों के विरोध पर उसके विचार जानकर. उसका कहना था कि वामपंथियों का विरोध मात्र दिखावा है. उनका असल मकसद तो सरकार की इस मुद्दे पर बांह मड़ोड़ कर अपना उल्लू सीधा करते रहना है. मुझे अब उसकी बातों में मजा आने लगा था. मैंने जब सरकार के भविष्य के बारे में उसका विचार जानना चाहा तो एक राजनीतिक विशेषज्ञ की भांति उसने कहा कि चुनाव तो अब अपनी नीयत समय पर ही होंगें पर इस गठबंधन का दुबारा सत्ता में आना मुश्किल है. उसकी नजर में बीजेपी सत्ता में आ सकती है परन्तु उसे भी गठबंधन सरकार ही चलानी होगी. हालांकि बीजेपी से भी उसे कोई ख़ास उम्मीद नहीं है. उसका मानना है कि सभी राजनीतिक दल और सभी नेता एक जैसे हैं. मजे की बात है कि जिस गठबंधन के सहारे आजकल की सरकारें चल रही हैं, एक रिक्शे वाले को भी उससे चिढ है. वर्तमान राजनीति की अधिकांश बुराईयों के लिए वह भी गठबंधन की मजबूरियों को ही जिम्मेदार मानता है. आपको हैरत होगी कि प्रदीप साहा मैट्रिक पास भी नहीं है और देश के बारे में इतना सोचता है जितना हमारे नेता शायद ही सोचते होंगे. मैंने इस बाबत उससे पूछा भी. जानते हैं उसने क्या जबाव दिया ? उसने कहा - हमारा देश है साहब. इसके अच्छे बुरे का सोचना तो पड़ेगा . मैं हैरान हूँ कि जिस देश का एक रिक्शा वाला भी इतना जागरूक है उस देश में सड़े हुए नेता चुनकर कैसे आ जाते हैं और उनके हाथ में सत्ता कैसे चली जाती है? काश, हमारे रहनुमा कम से कम उस रिक्शेवाले की तरह सोच पाते.

ज्वालामुखी

ऊपर से शांत कितना
भीतर से
आतुर
एक ज्वालामुखी
फटने को ।
जिंदगी दुविधा में
शांत रहे या
फट जाए
अकुलाकर ।
तुमुल कोलाहल
अन्दर
ऊपर
नीरवता सी छाई
द्वंद भरा यह
जीवन
कब तक?
अंतस्तल बिंधे हुए
वेदना का स्वर
मौन
किसे किसकी
ख़बर
स्वयं में
गम सभी ।
प्राण निस्तेज
भावनाएं शून्य
जिंदा होने का
एहसास दिलाती
सिर्फ़
एक धड़कन।

वरुण राय

Tuesday, April 8, 2008

बीजेपी की पुचकारू राजनीति

सुना है बीजेपी मदन लाल खुराना , उमा भारती और बाबूलाल मरांडी को ,जिन्हें उन्होंने कुछ अरसे पहले लतिया कर भगा दिया था , फ़िर से पुचकार रही है। और पुचकारे भी क्यों नहीं। पुचकारने का टाइम जो आ गया है । लोकसभा चुनाव सिर पर है। प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग के वर्षों से संजोये सपने के साकार हो सकने की सम्भावना का अन्तिम अवसर है। इसके लिए जीवनी तक लिख डाली । ये निगोड़ी जीवनी लेखन की कला भी इधर कुछ ज्यादा ही फैशन में है। लेकिन भाई प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग के हौसले की दाद देनी होगी। जिनके भी बारे में अपनी किताब में बुरा लिखा, उनसें चुन-चुन कर किताब के लोकार्पण समारोह में बुलाया। खैर, लगता है मैं भटक गया। मैं कह रहा था कि बीजेपी में अभी पुचकारने का दौड़ चल रहा है। यहाँ तक कि मदन लाल खुराना जैसे अव्काश्प्रप्ती के दरवाजे पर खड़े नेताओं को भी पुचकारा जा रहा है। खुराना जी तो खैर 'पुचकृत भी हो गए हैं। केशु भाई पटेल को भी राज्य सभा का चारा दिया गया है। बावजूद इसके कि अभी हाल के गुजरात चुनावों में ही नरेन्द्र मोदी ने उन्हें उनकी औकात बता दी थी। कोई कसर जो नहीं छोड़नी है। मदद न कर पाएं तो कम से कम टांग तो नहीं खीचेंगे। और उमा बहन का तो मुझे लगता है "जोड़े से फ़िर न जुड़े , जुड़े गाँठ परि जाय " वाला हाल है। कब तमक के चल देंगी कोई भरोसा नहीं। एक बात गौर किया है आपने । उमा भरती ,ममता बनर्जी ,मायावती और जयललिता की चौकड़ी में एक समानता है। नहीं, दो समानता है। एक तो ये कि ये सभी महिलाएं हैं और दूसरी कि चारों की चारों बेवफा हैं। किसी एक के साथ इनका गठबंधन टिकता ही नहीं। मैं फ़िर विषयांतर हो गया। खैर, एक बाबूलाल मरांडी है झारखण्ड में जिनको सबसे ज्यादा पुचकारने की जरूरत है बीजेपी को। उनकी घरवापसी बीजेपी के लिए फायदेमंद हो सकती है। झारखण्ड में उनकी कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है। झारखण्ड के नेताओं में तो प्रदेश को बरबाद करने की जैसे होड़ लगी हुई है। ऐसा नहीं है कि बाबूलाल मरांडी एकदम चकाचक हैं। साफ सुथरे , सुधरे हुए। परन्तु झारखण्ड की राजनीतिक टोकरी में वे सबसे कम सादे हुए सेब हैं। देखते हैं प्रधानमंत्री-इन-वेटिंग की इस पुचकारू राजनीति उनके सपनों के साकार होने में कितना सहायक होती है। आमीन ।
वरुण राय

Monday, February 25, 2008

कॉमशिॅयल ब्रेक

शरबतिया कल भूख से मर गई
मीडिया की उसपर नजर गड़ गई
अख़बार वाले आए ,आए टीवी वाले भी
दो दिनों के बाद आये मुख्यमंत्री के साले भी।

परिजनों के इन्टरव्यू लिए गए
मृतिका की तस्वीर
बिकने के लिए तैयार हो गयी
मौत की तहरीर ।

भूख से हुई मौत
कितनों की भूख मिटाएगी
मौत की ख़बर भी
कॉमशिॅयल ब्रेक के साथ दिखायी जायेगी ।

नमस्कार ,आज की टॉप स्टोरी में हम
शरबतिया की भूख से हुई मौत को दिखायेंगे
हत्या,लूट ,बलात्कार वाले आइटम
बाद में दिखाए जायेंगे ।

सात दिनों से भूखी शरबतिया के
निकल नहीं रहे थे प्राण
सूखी छाती से चिपटे बच्चे के चलते
अटकी थी शायद उसकी जान ।

आख़िर ममता पर भूख पड़ी भारी
थम गई आज शरबतिया की साँस
छाती से चिपटे बच्चे ने लेकिन
छोड़ी नही थी दूध की आस ।

खबरें अभी और भी हैं श्रीमान
जाइयेगा नहीं
मौत की ऐसी मार्मिक ख़बर
किसी और चैनल पर पाइयेगा नहीं ।

परन्तु फिलहाल हम एक
छोटा सा ब्रेक लेते हैं
आपको भी आंसू पोछने का
थोड़ा वक्त देते हैं ।

प्राइम टाइम पर
ख़बरों का सिलसिला जारी है
शरबतिया के बाद उसके
मरणासन्न बेटे की बारी है ।

बच्चा भूखा है
कुपोषण का शिकार है
दो-चार दिनों में वह भी
मरने के लिए तैयार है ।


हम उसपर अपनी नजर
जमाये हुए हैं
कुछ और कमाने की
जुगत भिड़ाये हुए हैं ।

बच्चा बच गया तो हमारी किस्मत
ख़बर बिकाऊ नहीं होगी
चौबीस घंटे के चैनल के लिए
टिकाऊ नही होगी ।

क्योंकि ख़बर तो वही है
जो बिकती है
कम से कम चौबीस घंटे तक
जरूर टिकती है ।

अर्थवाद के इस युग में
पैसा पत्रकारिता पर भारी है
लोकतंत्र के चौथे खम्भे की
कॉमशिॅयल ब्रेक लाचारी है ।

Sunday, January 27, 2008

एक और दांडीमाचॅ

सावधान बापू ,
होशियार
निकला है एक बार
फिर से दांडी मार्च ।

तुमने तो खिलाफत की थी
अंग्रेजी हुकूमत की
तोड़ कर कानून नमक का
मान मर्दन किया था
फिरंगियों का ।

इन्हें करनी है किसकी खिलाफत
किसका मानमर्दन करना है
हमारा या तुम्हारा ।

कौन सा कानून बचा है
देश का
नहीं तोड़ा है इन्होंने जिसे
अब क्या तोड़ेंगे
देश को या समाज को ।


तुम्हें तो स्वाधीनता प्राप्त करनी थी
लोगों को एक किया था
दांडी मार्च के बहाने
इन्हें क्या पाना है
सत्ता कुर्सी या पावर ।

सावधान बापू ,
होशियार ।
तुम्हें , तुम्हारी दांडी यात्रा को
तुम्हारी अहिंसा को
तुम्हारे नाम को
बेचा जा रह है
राजनीति के बाजार में ।

पुरानी रवायत है
हमारी राजनीति की ये
हम बेचते हैं तुम्हें
तुम्हारी जैसी अन्य महान आत्माओं को
अपनी सुविधानुसार
और खरीदते हैं बदले में
अपने लिए वोट
ताकि भोग सकें
सत्ता सुख ।

ये जो लोगों का हुजूम
दिख रह है तुम्हें
इस आधुनिक
दांडी मार्च में
ये इंसान नहीं हैं
महज वोट हैं ये
और हैं साथ में चंद
वोटों के सौदागर भी ।

छोटी सी यात्रा थी तुम्हारी
दांडी तक की
लक्ष्य विशाल था
तिरंगा लहराने का
लाल किले पर ।

आधुनिक दांडी की यात्रा
भी छोटी है
पर लक्ष्य तुमसे भी विशाल

काबिज होना है
देश की सत्ता पर
और छोटे क्षत्रपों को
भी मिलाना है
अपने साम्राज्य में
जो भोगने नही देता
इन्हें चैन से सत्ता सुख ।

तुम तो सत्य के पुजारी थे
असत्य के देवता ये
अहिंसा मंत्र था तुम्हारा
हिंसा संबल इनका
तुम्हारा था जो देश प्यारा
स्वार्थ सिद्धि का साधन इनका ।

इसलिए सावधान बापू ।
सावधान इन राजनीतिक प्राणियों से
खुश न हो जाना
तुम कहीं
माला चढ़ायें ये प्रतिमा
पर जब तुम्हारी
समझ लेना है इनका
ये कोई पाप को
ढकने का बहाना ।

Thursday, January 3, 2008

पत्नी प्रताड़ित पति महासंघ

जैसे ही मैंने पत्नी प्रताड़ित पतियों का
अखिल भारतीय महासंघ बनाया
देश के कोने कोने से सदस्यता की खातिर
भुक्तभोगियों का आवेदनपत्र आया ।

वे सदस्यता अनुरोध से ज्यादा
पति प्रताड़ना के पर्चे थे
प्रताड़ना की किस्मों के उसमें
तरह तरह के चर्चे थे ।

अब लीजिये इन साहिबान की
एक शहर के पुलिस कप्तान की
लिखते हैं मेरे डंडे के सामने
ये सारा शहर थर्राता है
अपुन अपने शहर का सबसे बड़ा
गुंडा माना जाता है ।

घर घुसते ही मुझे मेरी नानी
याद आती है
बीबी का रौद्र रुप देखकर
मेरी रूह तक काँप जाती है ।

कोशिश करता हूँ जब कभी
पुलिसिया रौब झाड़ने की
देती है धमकी वो मुझे
बेलन से मारने की ।

और अगर कोशिश पर अपनी
मैं अड़ा रहता हूँ
बीबी का बेलन खा कर
बिस्तरे पर पड़ा रहता हूँ ।

दूसरे साहिबान लिखते हैं
सरकारी स्कूल का शिक्षक हूँ
वर्षों से वेतन का प्रतीक्षक हूँ
यदा कदा जब कभी स्कूल जाता हूँ
बच्चों पर जोर आजमाता हूँ।

उठाता बिठाता हूँ कान पकड़वाता हूँ
अक्सर मैं उन्हें मुर्गा बनाता हूँ
घर पर मेरी प्राणप्रिये
मुझ पर ही जोर आजमाती है
उठाती बिठाती है कान पकड़वाती है
जब जी में आता है मुर्गा बनाती है ।

बात यहीं तक रहती
तो गनीमत समझता
इसे भी मैं खुदा का ही
नेमत समझता
परन्तु हर सुबह कार्यक्रम
दुहराया जाता है
मुर्गा बना कर बाकायदा
कुकरूकूँ बुलवाया जाता है ।


अब सुनिए न्याय के
इस मठाधीश की
देश के एक होनहार
न्यायधीश की
लिखते हैं लोगों को
कटघरे में खड़ा करता हूँ
घर में खुद को ही
कटघरे में खड़ा पाता हूँ
हर बात पर बीबी ही
फैसला सुनाती है
मैं बिचारा अपील भी
नहीं कर पाता हूँ
क्या करूं साहब जान
पर बन आयी है
कातिल ही मुहासिब है
कातिल ही सिपाही है
शारीरिक नहीं मानसिक
प्रताड़ना का शिकार हूँ
इसलिए आपके संघ की
सदस्यता का तलबगार हूँ ।

हैरत में हूँ देखकर
खतों के इस अम्बार को
हंस कर जो टाल देते थे
पहले बीबी की मार को
संघे शक्ति कलियुगे का
होने लगा है भरोसा उन्हें
बीबी ने किसकिस बात पर नहीं
अबतक है कोसा उन्हें
तैयार हैं बीबी के विरुद्ध
होने को गोलबंद वो
मकसद में कामयाबी की
कोशिश करेंगे हरचंद वो
मैं भी हो रह था कुप्पा
करतब पर अपने फूलकर
बीबी ने जो अबतक दिए थे
उन सारे दर्दों को भूलकर ।

तभी कानों में मेरे
कोई बिजली सी कड़की
खडी थी सामने लाजो मेरी
आग सी भड़की-भड़की
न संघ न शक्ति बस
याद रहा कलियुग ही कलियुग
बीबी से पिटने का यारों
है इक्कीसवीं सदी का ये युग ।

पत्नी प्रताड़ित सभी पतियों से
करता हूँ क्षमा की विनती
मेरी भी होती है भाई
प्रताड़ित प्राणियों में ही गिनती
कर सका न मैं अपना भला
आपका भला क्या कर पाउँगा
बीबी के खिलाफ गया अगर मैं
तो असमय शहीद हो जाऊंगा ।

Wednesday, January 2, 2008

कम्बख्त डीएनए टेस्ट


विदेशों में पति इनदिनों
असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हैं
अपनी पत्नियों के अघोषित
प्रेमियों से त्रस्त हैं

बच्चों का जन्म सम्बन्धी
आंकडा काबिले गौर है
हर पांचवें बच्चे का
पिता कोई और है

बाप होने की ग़लतफ़हमी में
परवरिश का खर्च सहे
और बच्चा सूने में बाप
किसी और को कहे

कोई भी पिता ये कैसे
कर सकता था गंवारा
पर डीएनए टेस्ट के बिना
नही था कोई चारा

अधिकांश पिताओं ने अपने
बच्चों का डीएनए टेस्ट कराया
परिणाम देखकर उनका
सर और चकराया

टेस्ट का नतीजा बेहद
चौंकाने वाला निकला
पांचवें की जगह हर दूसरा
बच्चा ही किसी और का निकला

कई केस तो बच्चों के मुचुवल
ट्रान्सफर से सुलझ गए
पर कुछ पेचीदा मामले थे
जो बेहद उलझ गए

कई रंगीन मिजाज पत्नियों की
परेशानियाँ काफी बढ़ गयी
असली पिता को ढूँढने की जिम्मेदारी
उनके सर चढ़ गयी

कौन करे इन मूढ़ पतियों
से बेवजह तर्क
जना तो हमने ही है
पिता से क्या पड़ता है फर्क

कह दिया असली पिता को ढूँढने
पर कोई उनसे पूछना
आसान होता है क्या
भूसे के ढेर में सुई को ढूंढ़ना

रिश्ते तो राह चलते बना करते थे
पहचान क्षणिक होती थी
जिस्मानी भूख होती थी फकत
भावना नही तनिक होती थी

कोई डर होता था भय
क्या जमाना था
कमबख्त डीएनए टेस्ट को भी
अभी ही आना था

सीने का दर्द

सरकारी अस्पतालों की चकचक से हैरतजदा
मैंने ड्यूटी पर मुस्तैद चिकित्सक मित्र से पूछा
यार ये कैसा गड़बड़झाला है,जिनके गले में होती थी
अपने मातहतों की बाहें,आज उनमें नामुराद आला है ।

मित्र ने कहा सब राजनीति का खेल है
नेताओं का अस्पतालों में आजकल बड़ा रेलमपेल है
सीने में दर्द की शिक़ायत अचानक बढ़ गयी है
नेताओं के सुखी जीवन पर कोर्ट की नजर गड़ गयी है।

राजनीति के रंगे सियार समाज में आज नंगे खड़े हैं
बेगुनाही पे अपने सीना ठोकने वाले सीने का दर्द लिए अस्पतालों में पड़े हैं
नौकरी का सवाल है भैया इसलिए अस्पताल आना पड़ता है
दर्द सीने में हो न हो हमें तो दिखाना पड़ता है।

मैंने कहा ये रहस्य मेरी समझ में नही आता है
ये निगोड़ा दर्द अक्सर सीने में ही क्यों समता है
मर्डर का केस चले तो सीने में दर्द पुलिस का रेड पड़े
तो सीने में दर्द ,कोर्ट में डेट पड़े तो सीने में दर्द ।

पशुओं का चारा खाओ तो सीने में दर्द
हथियारों के साथ पकड़े जाओ तो सीने में दर्द
जनांदोलन में नरसंहार कराओ
तो सीने में दर्द ।

ह्रदय की ये बीमारी तो महामारी बन गयी है
जेल की जगह अस्पताल भेजना लाचारी बन गयी है
गहन चिंता में फंसी है इन दिनों सरकार बिचारी
जेल में अस्पताल हो या अस्पताल में जेल
कर रही है विचार बिचारी ।

या क्यों नही कोर्ट में ही अस्पताल बनाया जाये
पहले नेताओं का चेकअप हो फिर जमानत पर विचार किया जाये
पर नियम चाहे कुछ भी बने खुद को ध्यान में रख कर बनाना है
कल इन्हें ही सीने में दर्द हो जाये कमबख्त कल का क्या ठिकाना है ।

Tuesday, January 1, 2008

फिर आया शहर में चुनाव का मौसम

पोस्टर पर्चे वादे घोषणाएँ
झूठ फरेब घातप्रतिघात
छल प्रपंच आरोप -प्रत्यारोप के साथ
फिर आया शहर में चुनाव का मौसम ।

जात -पात अगड़ा पिछड़ा
बम बंदूक गोला बारूद

आम सभा जनसभा रैली और रैला के साथ
फिर आया शहर में चुनाव का मौसम ।

टिकट पार्टी निष्ठा अनुशासन
दल बदल बागी भीतरघात
प्रत्याशी नामांकन और गाड़ियों के काफिले के साथ
फिर आया शहर में चुनाव का मौसम ।

मतदाता मतदान मतगणना
पोलिंगबूथ एजेंट मतपेटियाँ
अधिकारी पर्यवेक्षक और आचार संहिता के साथ

फिर आया शहर में चुनाव का मौसम ।