Sunday, May 4, 2008

राज ठाकरे मानसिक रोग से ग्रस्त हैं

मुझे लगता है राज ठाकरे किसी गंभीर मानसिक रोग से ग्रस्त हैं क्योंकि जिस तरह से वो जहर उगल रहे हैं वैसा कोई स्वस्थ आदमी तो नहीं कर सकता है। अपना राजनैतिक वजूद बनाने के लिए कोई इस स्तर तक कैसे जा सकता है। उनकी सभाओं में जुटने वाले लोगों को शायद पता नहीं है कि राज ठाकरे सिर्फ़ अपने व्यक्तिगत राजनीतिक स्वार्थ के लिए उन्हें एक ऐसी अंधेरी सुरंग में ठेल रहे हैं जहाँ उन्हें जान माल की हानि के अलावा कुछ हासिल नहीं होने वाला है। हाँ मराठी- गैरामराठी के नाम पर राज की पार्टी को दोचार विधानसभा की सीटें अवस्य हासिल हो जा सकती हैं। कभी बाल ठाकरे ने भी यही फार्मूला अपनाया था अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए और अब राज जो कभी बालासाहेब के उत्तराधिकारी माने जाते थे आज उन्हीं की दवा उन्हें पिला रहे हैं.दरअसल राज को न मराठियों की भलाई से कुछ लेना-देना है और न ही उन्हें गैरमराठियों से कोई अदावत है. उस बेचारे को तो अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाना है. उस बेचारे के पास अपने चाचा बाल ठाकरे की दी हुई एक शिक्षा है, जिसे उपयोग कर वो अपना राजनीतिक वजूद बचाने की कोशिश कर रहा है. और तो उनके पास कोई राजनीतिक आधार है नहीं . अभी कल तक शिवसेना की विरासत सँभालने की उम्मीद में बाल ठाकरे की उंगली पकड़ कर घूम रहे थे परन्तु जब देखा कि शिवसेना की राजनीती की दुकान तो उद्धव के नाम की जा रही है तो बालासाहेब की उंगली छुड़ा कर भाग लिए. अब शिवसेना के राजनीतिक गर्भ में राज ने जो नफरत की तालीम पायी है वो उसी का उपयोग कर रहे हैं. परन्तु महाराष्ट्र के मराठी भाइयों को एक बात समझनी चाहिए कि राज और बाल ठाकरे दोनों ही मराठी हैं लेकिन उन्होंने एक दूसरे के हित का तो ध्यान नहीं रखा और किसी गैर मराठी ने तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ा फ़िर वो गैर मराठियों के विरुद्ध क्यों हो गए. सिर्फ़ इसलिए कि इस देश में जहाँ जनाधार विहीन लोग प्रधानमंत्री बने हुए हैं वहां जाति,धर्म,भाषा,साम्प्रादय और क्षेत्रीयता के नाम पर लोगों को बांटना बेहद आसान है. न महाराष्ट्र सरकार राज के इस नफ़रत फैलाओ अभियान पर लगाम लगना चाहती है और न ही केन्द्र सरकार. मनमोहन सिंह ने तो इसपर एक बयान देना भी उचित नहीं समझा. सवाल उठता है कि अगर सरकार कुछ नहीं कर रही है तो क्या हम आम लोग इसका विरोध नहीं करेंगे, चाहे हम मराठी हों या गैर मराठी. मीडिया भी राज के बयानों और उनकी सभाओं का बहिष्कार कर उनके मंसूबों पर बहुत हद तक अंकुश लगा सकता है. पर क्या ऐसा होगा ? देखते हैं.

न्यूज चैनलों पर भारी पड़ता चौबीस घंटा

न्यूज चैनलों में जब चौबीस घंटे न्यूज दिखाने की होड़ शुरू हुई थी तो बड़ा शोर शराबा हुआ था । पल-पल की ख़बर! हर पल की ख़बर ! पर समय बीतने के साथ ये चौबीस घंटे इनपर अब भारी पड़ने लगे हैं। कहाँ से लायें इतनी ख़बर । फ़िर शुरू हुआ ख़बरों को बार-बार, लगातार दिखाने का दौड़ । पर इससे जो नया है वही न्यूज है वाला फंदा ही बदल गया। सुबह से शाम तक एक ही न्यूज जब तक कि कुछ नया हाथ न लग जाए । इसके बाद न्यूज को खींचने का दौड़ शुरू हुआ। समाचार की दुनिया में जिसे फॉलोअप कहा जाता है। जैसे सुनीता विलियम्स ने अन्तरिक्ष में जा कर न्यूज बनने लायक काम किया(मैं सुनीता की उपलब्धि को कम नहीं कर रहा हूँ) तो उनकी सारी पसंद नापसंद भी न्यूज बन गया । खाने में क्या पसंद है, नहीं है आदि-आदि। इनके सारे संबंधियों को पकड़ कर न्यूज बनाया जाने लगा। अभी एक मई को महाबली खली की घर वापसी पर जी न्यूज ने तकरीबन एक घंटे का कार्यक्रम दिखाया गया । उनके पैट्रिक गाँव में उनका मकान बन रहा है। अब खली न्यूज हैं तो उनका बनता हा माकन भी न्यूज हैऔर उसमें काम करने वाले मिस्त्री भी न्यूज है। खली के दोस्त भी न्यूज हैं और बचपन में खली लोटा लेकर कहाँ फारिग होने जाते थे शायद ये भी न्यूज है। पता नहीं इसे क्यूं छोड़ दिया उनलोगों ने। अभी एकाध सप्ताह पहले आजतक तो हाथ धोकर खली के पीछे पड़ गया था । उनकी हार की ख़बर भी उसी शान और जज्बे के साथ दिखायी जा रही थी जिस तरह क्रिकेट में भारत की जीत को दिखाया जाता है। इधर खुछ दिनों से टाईम पास करने के लिए आई पी एल नाम का झुनझुना हाथ लग गया है। वो भी अधनंगी लड़कियों के लटकों-झटकों वाला बिकाऊ झुनझुना । जब जी में आया बैठ गए झुनझुना लेकर । टाईम काटने के लिए ये चीजें भी जब नाकाफी रहीं तो मनोरंजन चैनलों की चीजें उठाकर पडोसने लगे । कभी धारावाहिकों की कहानी तो कभी लाफ्टर शोज के फुटेज । धारावाहिकों से डर कर यदि आपने न्यूज चैनल ऑन किया है तो यहाँ भी आपकी खैर नहीं है। सास बहू और साजिश को वहां नहीं झेला है तो यहाँ झेलिये । बच कर कहाँ जायेंगे। दाऊद के पीछे पड़े तो उसे इतनी बार दिखाया कि अँधा भी दाऊद को पहचान ले। कभी कभी तो ये न्यूज चैनल वाले ऐसा खौफ पैदा कर देते है कि पूछिए मत। प्रलय होने वाला है। सृष्टि ख़त्म होने वाली है। अरे भाई, सृष्टि जब ख़त्म होगी तब होगी , अभी से लोगों को क्यों हलकान कर रहे हो । भूत प्रेतों वाली चीजें तो अब न्यूज चैनलों का अहम् हिस्सा बन गयी हैं । और प्रस्तुतकर्ता भी पता नहीं कहाँ से ढूंढ कर लाते हैं। कहानी से पहले इन्हें देख कर ही डर लगता है। चैन से सोना है तो जाग जाओ । अरे भइया , जब जग ही गए तो सोयेंगे भूत या कत्ल देख कर? बलात्कार की खबर इतने उत्साह से दिखाते हैं कि क्या कहें। और हाँ, सबसे अद्भुत तो इनका ब्रेकिंग न्यूज होता है. ब्रेकिंग न्यूज- सोनिया गाँधी की नींद खुल गयी. ब्रेकिंग न्यूज- फलाने टीम की मीटिंग ख़त्म हुई. ब्रेकिंग न्यूज- राहुल गाँधी आज टहलने निकले . किसी दिन आप देखेंगे - बकरी ने बच्चा दिया - ब्रेकिंग न्यूज . ब्रेकिंग न्यूज की एक और खासियत है- यह कई चैनलों पर एक साथ दिखाया जाता है. एक और बड़ी मजेदार चीज होती है इन न्यूज चैनलों में. किसी मुद्दे पर बहस के लिए अतिथि बुलाये जाते हैं. अपेक्षा ये रहती है कि अतिथि बोलेंगे और प्रस्तुतकर्ता समन्वय का काम करेंगे परन्तु अतिथि बोलने के लिए मुंह खोलते ही हैं कि प्रस्तुतकर्ता बोल पड़ते हैं अतिथि को बीच में ही चुप करा दिया जाता है. और संयोग से बहस किसी नतीजे पर पहुँचता प्रतीत होता है तो इनका टाईम ही ख़त्म हो जाता है और अधिकांश बहस बिना किसी तीजे पर पहुंचे ही ख़त्म हो जाती है. आशा ये की जाती थी कि न्यूज चैनलों की बढती तादाद से पैदा हुई स्पर्धा से इनमें गुणात्मक सुधार होगा, कुछ अच्छी चीजें देखने सुनने को मिलेंगी पर हुआ इसका उल्टा . न्यूज चैनलों का स्तर दिन-बी-दिन गिरता ही चला गया . ईश्वर इन्हें सुधार की प्रेरणा दे.