Sunday, December 30, 2007

इसलिए तो मैंने राजनीति को चुना है

देश में बह रही फील गुड की बयार से
मंत्री की बीबी ने उठाना चाहा फायदा
सोचा इस चुनाव के मौसम में
करा लें पति से दो चार वायदा ।




बोली सारे देश को फील गुड करा रहे हो
मुझे कब फील गुड कराओगे
शादी में जो किया था वादा
कम से कम उसे तो निभाओगे ।


मंत्री बोले राजनीति में वादे
किये जाते हैं , निभाए नहीं जाते
पर तुम्हारी बात कुछ और है
तुम से तो शादी की है राजनीति नहीं ।

चुनावी माहौल में खुला है
वादों का पिटारा तू जान ले

जो कुछ माँगना है अभी ही माँग ले
गलती से जीत गया अगर मैं
पांच सालों तक आऊंगा नहीं नजर मैं
जनता तो भोली है भुलावे में आ जायेगी
पर तू तो मुझे कच्चा ही चबा जायेगी।

पार्टी तो रोज बदल सकता हूँ
पर तू तो इकलौती ही रहेगी
मेरे पुरुषत्व के लिए तू चुनौती ही रहेगी
राजनीति में तो बगैर पुरुषत्व के भी चलता है
सब हमारे जैसे ही हैं इसलिए नहीं खलता है
अच्छा होता है बीच वाला सुना है
इसलिए तो मैंने राजनीति को चुना है ।

Saturday, December 29, 2007

क्या कलयुग सचमुच आ गया है

नमक हो गया है नमकीन कुछ कम
कम हो गयी है कुछ शक्कर की मिठास भी
पानी बिक रह है दूध की कीमत पर
क्या कलयुग सचमुच आ गया है ।

नारियाँ व्यभिचार का शिकार हो रही हैं
शिकार हो रही हैं बच्चियां बलात्कार का
इंसान दिन ब दिन हैवान हो रहा है
क्या कलयुग सचमुच आ गया है।

धर्म के नाम पर हो रही है हत्या
और हो रही है हत्या खुद धर्म की आज
हत्यारे बन बैठे हैं मजहब के ठेकेदार
क्या कलयुग सचमुच आ गया है।

मंदिर मस्जिद बन गया है अखाड़ा
अखाड़ा बन गया है गाँधी का यह देश

धर्म बन गया है सर्वनाश का निमित्त
क्या कलयुग सचमुच आ गया है।


जात पात का है फ़ैल रहा अँधेरा
और फ़ैल रहा है अँधेरा व्यभिचारों का
माँ कर रही है बेटों की हत्या
क्या कलयुग सचमुच आ गया है।

Thursday, December 27, 2007

भाषाई प्रान्जलता

मेरे आलोचक मित्र ने कहा
तेरी तथाकथित कविता के
भाव तो अच्छे हैं पर
इसमें भाषाई प्रान्जलता की
कमी बेहद खलती है
तुम्हें तो वास्तव में
कवि कहना भी एक गलती है।


आलोचक मित्र को मैं अपनी
मजबूरी कैसे बतलाऊँ
कविता में अपनी मैं
भाषाई प्रान्जलता कहाँ से लाऊं ।

भाषाई प्रान्जलता का नमूना तो
हमारे नेता दिखा रहे हैं
अच्छे भले लोगों को भगोड़ा
दलाल , चिरकुट और शिखंडी बना रहे हैं ।


पर यह तो सिर्फ अभी झांकी है
असली फिल्म तो आनी अभी बाक़ी है ।
नेताओं की भाषाई प्रान्जलता की
दुहाई है दुहाई है
बात अभी लौंडों के नाच तक ही पहुंची है
माँ बहनों की बारी अभी कहाँ आई है ।

वह दिन दूर नही जब संविधान को
और संशोधित किया जाएगा
स्पीकर को भी माँ लगा कर
संबोधित किया जाएगा
महामहिम को भी विशेष उपमा से
नवाजा जाएगा
पद की गरिमा के अनुकूल ही
उन्हें संबोधन दिया जाएगा

आख़िर फ्रीडम ऑफ़ स्पीच है भैया
कौन इन्हें रोकेगा
गन के तंत्र के नुमाईंदे हैं
भला कौन इन्हें टोकेगा

यह लोकतंत्र है श्रीमान
यहाँ सब चलता है
जोकरों,शिखंडियों,दलालों से
हमारा प्रजातंत्र बनता है

गरिमा चाहे कितनी भी गिरे
हमें कुछ नही कहना है
हम तो जनता जनार्दन हैं
हमें तो मूक दर्शक बने रहना है ।

मैं

भौतिकता और आध्यात्म
के बीच
व्यवहारिकता और आदर्श
के बीच
खड़ा
मैं
अपने अस्तित्व को

ढ़ूँढ़
रहा हूँ ।

''मैं'' जिसकी समाप्ति
आध्यात्म की
पहली शर्त है ,

''मैं '' भौतिकता का
जो आधार है
''मैं '' जिसके बिना
व्यक्ति हो जाता है
अस्तित्वविहीन ।

उसी मैं को
ढूँढ रहा हूँ मैं ।


न जाने कहाँ
खो गया है
मेरा यह ''मैं''
जिसके बिना न
भौतिकता को
जी पा रह हूँ
और न आध्यात्म को ।


त्रिशंकू की तरह
लटक कर रह
गया हूँ
भौतिकता और
अध्यात्म के बीच।


जनता हूँ दोनों हैं
नदी के दो किनारे
मिल नही सकते
जो कभी
और न ही
निकल सकता है
बीच का रास्ता कोई
फिर भी
किसी सहज
मध्यम मार्ग की
खोज में
खोता जा रह हूँ

अपना अस्तित्व ही
''मैं''।

वोट

चुनाव का दिन था
पोलिंग बूथ पर लगी थी
'वोटों' की लंबी कतार
तभी एक वोट अपने
अगले वोट से बोला
भाई तू कैसा वोट है
हिन्दू है की मुसलमान है
सांप्रदायिक है की धर्मनिरपेक्ष
अगड़ा है की पिछड़ा है
कुर्मी है की कहार है।


सुनकर पिछले की बातें
अगला वोट हड़बड़ाया
बोला न अगड़ा हूँ न पिछड़ा

न हिन्दू हूँ न मुसलमान हूँ
मैं तो बस इंसान हूँ ।

सुन कर उसकी बातें
पिछला वोट मुस्कुराया
बोला लगता है तुने
अभी-अभी अठारह पार किया है
तू अभी नादान है
देश की राजनीति से
लगता है तू अनजान है ।

हम सब सिर्फ वोट हैं
इंसान नहीं
नेताओं की नजर में
हमारी और कोई पहचान नहीं ।

Tuesday, December 25, 2007

हाट

यह सत्संग चौक है

यह बाजला चौक है

यहाँ हाट लगता है

रोज-रोज प्रतिदिन ।



देश में अनेक ऐसे चौक हैं

गली मुहल्लों में ,गलियों में

जहाँ ऐसा हाट लगता है

रोज-रोज दिन प्रतिदिन ।



साग-सब्जियां नहीं बिकती है यहाँ

न ही बिकते हैं यहाँ

खाद्य -खाद्यान या पशु मवेशी

ये इंसानों का हाट है

यहाँ मनुष्य बिकते हैं

रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।



प्रकृति की सुन्दरतम रचना

बिकती है यहाँ

उनका श्रम बिकता है

खून और पसीना बिकता है

रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।



ऐसा मुकाम भी आता है

जीवन में उसके

बेच कर श्रम भी जब

बुझती नहीं ज्वाला पेट की

तब बिकती है आत्मा उसकी

चेतना बिकती है

बहू बेटियाँ बिकती हैं

घरबार बिकता है

रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।



चढ़ता सूरज वैसे तो

प्रतीक है आशा का

पर चढ़ता सूरज

क्षीण करता है

संभावना इनके बिकने की

आशा निराशा का यह खेल

चलता रहता है
रोज-रोज दिन प्रतिदिन ।




बिकता है वह

खरीदते हैं हम

कीमत कोई और तय करता है

साठ रुपये प्रतिदिन

अपनी कीमत भी नहीं
कर सकता है तय वह
बिकने को मजबूर है
तयशुदा कीमत पर
रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।

हर चीज की कीमत
बढ़ती रहती है
रोज-रोज दिन-प्रतिदिन
पर इनकी कीमत रहती है
स्थिर , गरीबी की तरह ।

वह महज एक कीड़ा है
हम इंसानों के बीच
उसे हम मजदूर कहते हैं
उसे बस रेंगना है
और कुचला जाना है
हमारे अहम तले
रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।


साम्यवाद हो या समाजवाद
या चाहे कोई और वाद
नारे सारे खोखले ही रहेंगे
तब तक , जब तक ये
हाट लगते रहेंगे
आत्मा बिकती रहेगी

चेतना बिकती रहेगी
घरबार बिकते रहेंगे
बहू-बेटियाँ बिकती रहेंगी
रोज-रोज दिन-प्रतिदिन ।

हिंगलिश कविता

मेरी प्रयोगधर्मी कविता सुनकर
आयोजक महोदय घबड़ाये
थोडा हड़बड़ाये फिर
बड़बड़ाये
ये कैसी कविता है

ये तो न हिन्दी है न इंग्लिश है
मैंने कहा जी हाँ ये हिंगलिश है ।

हिन्दी इंग्लिश का फ्यूजन है
हालांकि आलोचकों में
अभी थोडा कन्फ्यूजन है ।

रूढ़ीवादियों के लिए
मेरी कविता अधर्मी है

पर यकीन मानिये
यह विशुद्ध प्रयोगधर्मी है ।

मेरी हिंगलिश कविता
वास्तव में
कॉन्वेंटी कल्चर को अर्पित है
वी वांट हिन्दी इन इंडिया
चाहने वाले हिन्दी प्रेमियों

को समर्पित है ।

मेरी कविता भविष्य की
कविता है
बाद में रंग लाएगी
नयी नयी है अभी
लोगों को समझ में
नही आएगी ।

भाषा की राजनीति में
धर्मनिरपेक्षता का
प्रयोग है मेरी कविता
बहुसंख्यक हिन्दी द्वारा
अल्पसंख्यक इंग्लिश को
पटाने का उत्जोग है मेरी कविता ।

मैंने आयोजक महोदय को समझाया
राजनीति का उन्हें
गुर बताया
हिन्दी बहुसंख्यक है
उसे पकडे रहेंगे
तो सांप्रदायिक कहलायेंगे

राजनीती की दौड़ में जनाब
पीछे रह जायेंगे ।

इसलिए आप भी हिंगलिश
कविता को बढावा दीजिए
हिन्दी की कविता में
इंग्लिश के शब्द घुसेडिये
और बहुसंख्यक की अस्मिता का

अल्पसंख्यक को चढावा दीजिए ।

फिर देखिए आपके जीवन में
कितने रंग भर जाते हैं
कैसे कैसे सम्मान , पुरस्कार
आपके हाथ आते हैं ।

कीमत की चिंता मत कीजिए
जिन्हें चुकानी है वो चुकायेंगे
नही चुका पाए तो
भांड में जायेंगे
अल्पसंख्यक इंग्लिश खुश रहेगी
धर्मनिरपेक्षता कायम रहेगी
यही क्या कम है
देश समाज व्यक्ति
जहन्नुम में जाये
आपको क्या गम है ।

इसलिए कहता हूँ वक्त की
नब्ज को पहचानिए
धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के
फर्क को जानिए
प्रयोगधर्मी बनिए
हिंगलिश कविता अपानायिए
और भाषा की राजनीति में

सत्ता सुख पायिए॥

राजनेता की नरकयात्रा

मगनलाल थे नेता विकट
लेकिन जब उनका कटा टिकट
सीधा नरक गए वो मरकर
मिलते थे यमराज भी उनसे डरडर कर।

विधि का विधान था वरना
रिस्क ऐसा हरगिज न लेते

मगनलाल जैसों को मृत्युलोक में ही

सड़ने को छोड़ देते ।


मगनलाल से नहीं लेकिन

छुआछूत की बिमारी का डर था

फैलने का नरकलोक में

राजनीतिक महामारी का डर था ।

मजबूरी थी मगनलाल को
नरकलोक पहुँचाया गया
यमदूतों के द्वारा उन्हें

कानून नरक का बतलाया गया ।

नरकलोक में राजनीति
पूर्णतः वर्जित है

नष्ट हो जाएगा वरना

पुण्य किया जो अर्जित है ।

चेतावनी सुन कर मन ही मन
कुटिलता से मुस्काये मगनलाल

यमदूत के अल्पज्ञान पर

आया उन्हें बड़ा मलाल।

मृत्युलोक का लगता है यम् को
नहीं है बिल्कुल भी ज्ञान

राजनीती में चलता है कहीं

भला पुण्य का विधान ।

मन ही मन सोचा उसने
पुण्य ही नहीं तो नष्ट भला क्या होगा

नरक का विधान तोड़ने से

कष्ट भला क्या होगा ।


प्रकट में तो मगनलाल ने

सहमति में सर हिलाया

पर अपनी राजनीतिक चालों का

पहला निशाना यमदूत को ही बनाया ।


नहीं तोडूंगा नियम नरक के

है मेरा ये तुमसे करार

पर इतना तो बता दे भैया

मिलती है तुझे कितनी पगार ।

यमदूत यमदूत था पर भोला था
बता दी उसने अपनी पगार

मगनलाल के लिए काफी था इतना

मिल गया उसे मनचाहा हथियार ।

यम् के वेतन से नहीं था मतलब
वह तो स्वर्ग का अभिलाषी हुआ था

इच्छा थी उसकी लोग कहें वह भी

मरने पर स्वर्गवासी हुआ था ।

एक आह भरी और बोला
इतनी कम पगार समय कैसे तू गुजारता होगा

दो वक्त की रोटी भी भला

कैसे तू जुगाड़ता होगा ।

मृत्युलोक का आजमाया हुआ
मगनलाल ने चलाया तीर

कहा जरूर तू पिछडा होगा

कौन भला समझेगा तेरी पीड़।

पर फिक्र न कर तू यमदूत
मगनलाल अब आ गया है

जो खोया था मृत्युलोक ने

तेरा नरकलोक वह पा गया है ।


पृथ्वी पर मैं पिछडों का

अव्वल दर्जे का नेता था

अगडे पिछडों के सामाजिक संघर्ष का

मैं ही तो प्रणेता था ।

मृत्युलोक में इस मगनलाल से
सूरमा भी घबड़ाते थे

तोड़ना जब समाज को होता था

लोग मेरे पास ही आते थे ।

पर रहने दे तू इन बातों को
सौ का तू यह नोट रख ले

अंग्रेजी दारु की जुगाड़ कर कहीं से

मुझे पिला और तू भी चख ले ।

मदिरा मृतुलोक में रे यम्
महती कार्य करवाती है

ठेका पट्टा चुनाव प्रमोशन में

बडे काम यह आती है ।

नेता की मायावी बातों से
यमदूत भी सम्मोहित हुआ

करवद्ध हो विनयशील स्वर में

मगनलाल से संबोधित हुआ ।

मदिरा के नाम पर श्रीमान
सिर्फ सुरा यहाँ पायी जाती है

वह भी स्वर्गलोक से कभीकभार

स्मगल कर के लायी जाती है ।


आप कहें तो यह सेवक

सुरापान की कुछ जुगत करे

सौ के नोट से पर भला क्या होगा

कुछ और मिले तो बात बने ।

देख कर यम् के नए रुप को
हैरत से उसने पूछा

भ्रष्टाचार के इस पौधे को

नरकलोक में है किसने सींचा।

लगता है कुछ बंधु बांधव
पहले ही कर चुके यहाँ प्रवेश

भ्रष्टाचार के तरुवर को बस
फलना रह गया है शेष ।

स्वर्गवासी होने की अभिलाषा मेरी
लगता है जल्द ही पूरी होगी
भ्रष्टाचार के ऐरावत के लिए

भला स्वर्ग की भी क्या दूरी होगी ।

नरकलोक में कुछ रहा न वर्जित
मगनलाल के सद्प्रयासों का फल था

भ्रष्टाचार का आजमाया हुआ नुस्खा

नरकलोक में भी सफल था ।

सुरा सुंदरी दोनों सुलभ थे
सिर्फ नोट खर्चने होते थे

मृत्युलोक की भांती ही अफसर

लम्बी तान कर सोते थे ।

पानी जब सर से गुजरने लगा
नरकलोक भ्रष्टाचार में डूबने उतरने लगा
विचलित हुए तब यमराज भी
सोचा छीन जाएगा ऐसे तो मेरा ताज भी ।

क्यों न इस बला को
स्वर्गलोक भिजवाया जाये

इन्द्र को भी पृथ्वी लोक की

स्वाद राजनीति का चखाया जाये ।

जैसे तैसे मगनलाल को
स्वर्गलोक भिजवाया गया

नरकलोक को इस महामारी से

निजात किसी तरह दिलाया गया ।

मगनलाल की अभिलाषा तो पूरी हुई
स्वर्गलोक का जो होगा देखा जाएगा

पर मेरी मति कहती है आजिज हो उसे

वापस मृत्युलोक में ही फेंका जाएगा ॥

Monday, December 24, 2007

जनता आख़िर कहाँ जायेगी

भूख से हो रही मौत पर
विपक्ष और मीडिया मचा रहे थे शोर
सरकार न चिंतित थी
न परेशान
बस थोडा सा
हो रही थी बोर ।


उसने सोचा चलो
इस किस्से को ही
ख़त्म कर देते हैं
करा कर कुछ
मृतकों का पोस्टमार्टम सब का मुँह
बंद कर देते हैं।

नमूने के तौर पर
एक मृतक का
पोस्टमार्टम कराया गया
पारदर्शिता की खातिर
विपक्ष और मीडिया
दोनों को बुलाया गया ।

पोस्टमार्टम के बाद
चिकित्सक ने कहा
इसका पेट तो
ठसाठस भरा है
बन्दा कमसेकम
भूख से तो नहीं मरा है ।


विपक्ष के एक नेता ने
हैरत से कहा
मृतक को मैं
अच्छी तरह से जानता हूँ
उसे उसके नाम से पहचानता हूँ

वह कई दिनों से भूखा था
वह भूख से ही मरा है
पर उसका पेट कैसे
भरा है।


नेता की बातें सुन
मुर्दा कुनमुनाया

फिर भुनभुनाया
ठीक कह रहे है नेता जी
और चिकित्सक भी सही है
मैं भूख से ही मरा हूँ
और मेरा पेट भी भरा है ।


पर हैरान मत हो

मैं बताता हूँ
कि दरअसल

माजरा क्या है।

मेरा पेट उन्हीं
वादों और सपनों से भरा है
आधी सदी से जिसपर
इस देश का लोकतंत्र खड़ा है।


परन्तु बाबूजी
वादों और सपनों से
पेट तो भर सकता है
पर भूख नही मिटती है
सपनों कि रंगीनियाँ
हकीकत के धरातल पर
कहाँ टिकती है ।


फिर मुर्दे ने अचानक
मुद्रा बदली
किसी बाजीगर कि तरह
हाथ हवा मैं लहराया
और एक विशेष अंदाज से
अपना पेट ठकठकाया।


पेट के उस हिस्से से
जो पोस्टमार्टम के बाद
अभी तक खुला था
निकल कर हवा में
लहराने लगे
तरह तरह के वादे
तरह तरह के सपने
अधिकांश नेताओं के दिए थे
थे कुछ उसके अपने ।


वादे कुछ नए थे
कुछ पुराने
कुछ आजादी के समय के थे
एक्सपायर हो चुके थे
कुछ को एक्सपायर करने में
अभी टाइम था
और कुछ वादों को

करना पड़ रहा ओवरटाईम था ।

गरीबी , बेरोजगारी मिटाने जैसे
कुछ वादे भी
हवा में लहरा रहे थे
जो कभी एक्सपायर नहीं करते
किसी भी चुनाव में ये
मिसफायर नहीं करते ।


इतनी वेरायटी वाले वादों को
एक साथ देख कर
विपक्ष और सरकार
दोनों का मन डोल गया
सरकार का नुमाइंदा

विपक्ष के नुमाइंदे से
आंखों ही आंखों में
कुछ बोल गया ।


फिर दोनों ने आपस में
सारे वादों को बाँट लिया
करने को प्रयोग अगले चुनाव में
सुंदर सपनों को छाँट लिया
वादों को नफे नुकसान के
तराजू में तोला
फिर विपक्ष फुसफुसा कर
सरकार से बोला ।


हमारा मनपसंद खेल

नजदीक आ रह है
अंग-अंग देखो कैसे
चुनाव-चुनाव गा रह है
चलो हम वादे सपनों का
खेल खेलेंगे
झेलना जिनकी किस्मत है
इस बार भी झेलेंगे ।


मैं तुझ पर आरोप लगाऊंगा

भूखमरी बढ़ाने के
तुम वादे करते रहना
गरीबी मिटाने के
वही देश पर राज करेगा
जिसके झांसे में
जनता आएगी

या तो तुझे वोट देगी
या मुझे जिताएगी
लाचारी है जनता
आख़िर कहाँ जायेगी।

गाँधी के चार बंदर

तू तो मर कर स्वर्ग गया बापू
अपने बंदरों को क्यों छोड़ गया
प्यारे वतन से तू अपने
इतनी जल्दी क्यों मुँह मोड़ गया।

तेरा एक बंदर इन दिनों
विधायिका के नाम से जाना जाता है
मक्कारों की टोली में यह
सबसे मक्कार माना जाता है।

नैतिकता को तलाक दे इसने
नीचता से संबंध जोड़ लिया है
तेरे सारे आदर्शों से इसने
कब का अपना मुँह मोड़ लिया है ।

पेट इसका है बहुत बड़ा बापू
कुछ भी यह खा सकता है
चारा कफ़न ताबूत की कौन कहे
तेरे भारत को भी चबा सकता है ।

ये तेरा वह बंदर है जिसने
अपने कान कर रखे हैं बंद
अपने वतन से है इसका
सिर्फ स्वार्थ का संबंध ।

यह गरीबों की गुहार नहीं सुनता है
यह भूखों की पुकार नहीं सुनता है
इसे सिर्फ सत्ता का गीत सुनाई देता है
जनता के रुदन में भी इसे
वोट का संगीत सुनाई देता है ।

तेरा दूसरा बंदर बापू
कार्यपालिका कहलाता है
फाईलों के गोरखधंधे से यह
तबियत अपनी बहलाता है ।

पेट इसका भी बापू
नही है कम बड़ा
भ्रष्टाचार की बैशाखी पर है
तेरा यह बंदर खड़ा

विधायिका से इसकी
बड़ी बनती है
कभीकभार ही ठनती है
अक्सर खूब छनती है

ये तेरा वो बंदर है
जिसका मुँह तो बंद है
पर विधायिका से
जिसका अवैध संबंध है ।

यह बोलता कुछ नहीं है
अपना काम किये जाता है
दोनों हाथों से बस
माल लिए जाता है

जुबां पर तो इसके
ताले बंद है बापू
पर अंदर जाने कितने
घोटाले बंद है बापू

आ तुझे अब तीसरे बंदर की
हालत दिखता हूँ
तेरे दो बंदरों के हाथों हो रही
इसकी जलालत दिखाता हूँ

तेरा यह बंदर न्याय की
डोर थामे है
सबसे बडे प्रजातंत्र की यह
बागडोर थामे है

आजकल शासन कमोबेश
यही चला रहा है
विधायिका और कार्यपालिका के
जमीर को हिला रहा है

पर तेरे दोंनों बंदर इसे
प्रायः अंगूठा दिखा जाते हैं
इसकी कमजोर नस को जानते हैं इसलिए
अक्सर धता बता जाते हैं

तेरा यह बंदर लाचार है बापू
क्योंकि इसके आंखों पर
पट्टी बंधी है
गवाह सबूतों की
मोटी चट्टी बंधी है

भ्रष्टाचार की बीमारी से
यह भी नहीं अछूता है
पर हराम की कमाई को
कोई कोई ही छूता है ।

और हाँ बापू एक इजाफा हुआ है
तेरे बंदरों की टोली में
मीडिया कहते है इसे
यहाँ की बोली में।

प्रजातंत्र का यह
चौथा स्तंभ है
खुद के शक्तिशाली होने का इसे
बड़ा दंभ है।

इसका तो आँख कान मुँह
सब खुला है
यह भी देश को
चौपट करने पर ही तुला है।

कहने को तो ये
प्रजातंत्र का प्रहरी है
पर असल में इसकी
साजिश सबसे गहरी है।

यह नायक को विलेन
विलेन को नायक बनाता है
सब की खाता है पर
किसी किसी के काम ही आता है।

आतंकियों देशद्रोहियों का
सबसे बड़ा प्रचारक है
पर कहता अपने आपको
समाज सुधारक है।

इन्ही चार बंदरों पर टिका हैबापू
प्रजातंत्र तेरे वतन का
क्या इनसे ही तू आशा करता है
सुख चैन और अम का।

Thursday, December 20, 2007

कुर्सी तोड़ मार्का लोकतंत्र

यह हमारा लोकतंत्र है
खालिस देशी
शुद्ध घी की तरह

कोई मिलावट नहीं
कुछ भी इम्पोर्टेड नहीं
बहुत खूबियाँ हैं इसमें
हैं इसके कई फायदे
चूल्हों को जलावन तक मयस्सर नहीं है
पर हैं चाँद सितारों के वायदे
कोई कुछ भी कहे
विश्व में अव्वल है हमारा लोकतंत्र
वर्ना सदन में
कुर्सियाँ चलाने, तोड़ने को
कहाँ कौन है स्वतंत्र
ये हमारा कुर्सीतोड़ मार्का लोकतंत्र है
यहाँ सब स्वतंत्र हैं
चाहे तो सदन में
गालियाँ दे लो
चप्पलें चला लो
कुर्सियाँ तोड़ दो
या किसी की बाँह मरोड़ दो
कोई कुछ नहीं कहेगा
ये हमारा तरीका है
लोकतंत्र में आस्था व्यक्त करने का
कोई दूसरा मुल्क ऐसा
क्या कर पाता है
जो उँगलियाँ उठाते हैं
हमारे लोकतंत्र पर
उनके बाप का क्या जाता है


आख़िर स्वतंत्रता है अभिव्यक्ति की यहाँ
भावना की कद्र की जाती है
हर एक व्यक्ति की यहाँ
सिर्फ हमारे लोकतंत्र में
पाला बदलने की सुविधा है
नेताओं के मन में
पार्टियों को लेकर
नहीं तनिक भी दुविधा है
यहाँ दाल नहीं गली
तो वहाँ गला लेंगे
नहीं तो अपनी खिचड़ी
अलग पका लेंगे


खंडित जनादेश की सूरत में'
छोटे बडों का भेद सारा
मिट जाता है
पिद्दियों और सूरमाओं के बीच का
विभेद सारा मिट जाता है
गठबंधन की राजनीति
समरसता का गीत गाती है
बाघ और बकरी को
एक ही मंच पर बिठाती है
बाघ मिमियाता है
बकरी दहाड़ती है
क्योंकि सियासी कुर्सी की एक टांग
बकरी के हाथ में जो आ जाती है
सियासी कुर्सी की इसी एक टांग की खातिर
टूटती है अक्सर सदन में
अन्य कुर्सियों की टाँगें
इसी से गौरवान्वित होता है
हमारा कुर्सी तोड़ मार्का लोकतंत्र
जहाँ कुर्सियाँ चलाने तोड़ने को
होता है हर कोई पूर्ण स्वतंत्र

Monday, December 17, 2007

क्योंकि सास भी कभी बहू थी

कहानी घर घर की थी ये
कहानी हर घर की थी ये
बहुएँ पहले सताई जाती
थी
रूलाई जाती थी
और एक दिन सास के हाथों जलाई जाती थीं



परन्तु इस बार क्योंकि
बहू कुछ ज्यादा सयानी थी
गढ़ डाली उसने नयी कहनी थी
एक नया इतिहास बना डाला
उसने सास को ही जला डाला।






अदालात में जज ने पूछा
हमारी परंपरा तो बहुओं को जलाने कि है
तुमने सास को कैसे जला डाला
उसने कहा कैसे या क्यूँ
क्या बताऊँ हुआ कुछ यूं
एक दिन मैंने सोचा
कि सास तो सास इसलिए बन पायी थी
क्योंकि तब जब वह बहू थी
जल नहीं पायी थी।


मैंने तो बस परंपरा को निभाया है
सास को नहीं मैंने भी बहू को ही जलाया है
क्योंकि सास भी तो कभी बहू थी।




वैसे भी परंपरा तो हार हाल में निभाई जाती
सास नहीं जलती तो मैं जलाई जाती
प्रेम कि डोर से बंधी जो चली आई थी
आख़िर मैं भी तो दहेज़ लेकर नहीं आई थी।


क्या पता जज साहब
मेरी बहू भी प्रेम के डोर से बंधी चली आये
वह भी संग अपने
दहेज़ ना लाये

न्याय तो उसके साथ भी करना पड़ेगा
सास अगर जली है तो बहू को भी जलना पड़ेगा।


बात परंपरा की है
हर हाल में निभाई जायेगी
सास को आत्म रक्षार्थ जलाया था
बहू भी आत्म रक्षार्थ जलाई जायेगी।


क्या पता मेरी बहू भी
इतिहास को दुहरा डाले
आत्म रक्षा के बहाने वह
मुझे ही जला डाले।

उसकी बातें सुन जज ने कहा
जा तुझे छोड़ता हूँ
न्याय कि खतिर मैं भी
आज कानून को तोड़ता हूँ
स्वतः न्याय हो जाएगा
तेरी बहू यदि तुझे जला पाएगी
वरना बहू को जलाने के जुर्म में
तू फिर मेरे पास ही आएगी

गाँधी गोडसे संवाद

इधर कुछ दिनों की बात है
टहलते हुए बापू
कहीं
गोडसे से टकरा गए
अंक पास में उसे भरा बापू ने
छलक पड़े बरबस ही आंसू
कहा तेरा ऋणी हूँ गोडसे, मेरी कृतज्ञता स्वीकार करो।


व्यर्थ ही घृणा करते हैं लोग तुझसे
तुझे हत्यारा समझते हैं मेरा
नादाँ हैं नहीं जानते
तुने क्या उपकार किया है मुझपर
सचमुच में तेरा ऋणी हूँ गोडसे
मेरी कृतज्ञता स्वीकार करो।


तू अगर न मारता मुझे
तू अगर न ताड़ता मुझे
अपने वतन की दुर्दशा मैं कैसे सहता
सपनों के भारत की ये दशा मैं कैसे सहता
भूखों की पुकार मैं कैसे सहता
अबलाओं का चीत्कार मैं कैसे सहता
माँ बहनों का बलात्कार मैं कैसे सहता
मैं तेरा ऋणी हूँ गोडसे मेरी कृतज्ञता स्वीकार करो।


तू ही बता मेरे भाई
बेटियों को जलता क्या मैं देख पाता
बाप को बेबसी में
हाथ मलता क्या मैं देख पाता
हरी का जन कहा था जिसे मैंने
उसे सिर्फ वोट बनते क्या मैं देख पाता।

नैतिकता में इतनी गिरावट क्या मैं देख पाता
धर्म राजनीति कि ये मिलावट क्या मैं देख पाता
था अहिंसा का मैं पुजारी
सर्वत्र हिंसा क्या मैं देख पाता।


भ्रष्ट्र राजनीति भ्रष्ट्र नेता भ्रष्ट्र अफसर भ्रष्ट्र प्रणेता
भ्रष्ट्र लोक भ्रष्ट्र तंत्र ऐसा लोकतंत्र क्या मैं देख पाता।

तू न लेता प्रतिकार अगर
तू न करता उद्धार अगर
यह अनाचार यह अनीति
क्या मैं देख पाता
सिर्फ वोट की ये राजनीति क्या मैं देख पाता
गुलाम भारत की आजादी देखी थी मैंने
आजाद भारत की ये गुलामी क्या मैं देख पाता
इसलिए तेरा ऋणी हूँ गोडसे मेरी कृतज्ञता स्वीकार करो

जड़वत हतप्रभ सा गोडसे बापू की बातों को सुनता रहा
आंखों से बहती रही आँसुओं की अविरल धारा
प्रायश्चित के इन आंसुओं में
पाप उसका धुलता रहा।


लिपट कर बापू के पैरों से
इतना ही वह कह सका
तुझे मार कर बापू
यह गोडसे तो शर्मिंदा है
पर अफ़सोस है मेरी धरा पर आज भी
अनगिनत गोडसे जिंदा हैं

Tuesday, December 11, 2007

क़र्ज़ की महिमा

अखबार में छपी एक रपट देखकर
मेरे मित्र ने कहा
यार, हम सब पर विदेशी क़र्ज़
तो बहुत चढ़ गया है
क़र्ज़ का यह मर्ज़ तो और बढ़ गया है

मैंने कहा क़र्ज़ की चिंता तू व्यर्थ करता है
ऋण की आग में तिल तिल जलता है
क़र्ज़ लेना हमारे देश की शान है
जो जितना ऋणी है वो उतना ही महान है



क़र्ज़ लेते रहने से
बड़ों का संग बना रहता है
देश अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का
अंग बना रहता है

क़र्ज़ तले रहना
विकसित होने की निशानी है
हर विकासशील देश की
यही कहानी है

क़र्ज़ की महिमा यार बड़ी पौराणिक है
प्रजातंत्र में क़र्ज़ लेना पूर्णतः संवैधानिक है
चार्वाक हो या काका हाथरसी
सब क़र्ज़ की महिमा गाते रहे हैं
"ऋणम कृत्वा घ्रितम पिवेत" और
"कर्जा लेकर मर जा" जैसी सूक्तियाँ बताते रहे हैं

क़र्ज़ के बिना जीवन में
कोई चारा नहीं है
जिसने क़र्ज़ न लिया हो
ऐसा कोई बेचारा नहीं है

देश का क़र्ज़, विदेश का क़र्ज़,
सेठ का क़र्ज़, साहूकार का क़र्ज़
माँ का क़र्ज़, बाप का क़र्ज़..
गुरु का क़र्ज़... प्रभु का क़र्ज़
इसका क़र्ज़, उसका क़र्ज़
न जाने किसका किसका क़र्ज़

क़र्ज़ में जन्म लिया है
क़र्ज़ में मर जाना है
क़र्ज़ तो जीवन साथी है
क़र्ज़ से क्या घबराना है.