Thursday, December 27, 2007

मैं

भौतिकता और आध्यात्म
के बीच
व्यवहारिकता और आदर्श
के बीच
खड़ा
मैं
अपने अस्तित्व को

ढ़ूँढ़
रहा हूँ ।

''मैं'' जिसकी समाप्ति
आध्यात्म की
पहली शर्त है ,

''मैं '' भौतिकता का
जो आधार है
''मैं '' जिसके बिना
व्यक्ति हो जाता है
अस्तित्वविहीन ।

उसी मैं को
ढूँढ रहा हूँ मैं ।


न जाने कहाँ
खो गया है
मेरा यह ''मैं''
जिसके बिना न
भौतिकता को
जी पा रह हूँ
और न आध्यात्म को ।


त्रिशंकू की तरह
लटक कर रह
गया हूँ
भौतिकता और
अध्यात्म के बीच।


जनता हूँ दोनों हैं
नदी के दो किनारे
मिल नही सकते
जो कभी
और न ही
निकल सकता है
बीच का रास्ता कोई
फिर भी
किसी सहज
मध्यम मार्ग की
खोज में
खोता जा रह हूँ

अपना अस्तित्व ही
''मैं''।

1 comments:

Puja Upadhyay said...

baat gahri hai,sawal mushkil..aur kai baar koi beech ka raasta hota hi nahin...do naavon par sawar hokar hi chalna hi niyati ban jaati hai...kripya santulan banaye rakhein...meri shubhkaamnayein.