मुझे लगता है राज ठाकरे किसी गंभीर मानसिक रोग से ग्रस्त हैं क्योंकि जिस तरह से वो जहर उगल रहे हैं वैसा कोई स्वस्थ आदमी तो नहीं कर सकता है। अपना राजनैतिक वजूद बनाने के लिए कोई इस स्तर तक कैसे जा सकता है। उनकी सभाओं में जुटने वाले लोगों को शायद पता नहीं है कि राज ठाकरे सिर्फ़ अपने व्यक्तिगत राजनीतिक स्वार्थ के लिए उन्हें एक ऐसी अंधेरी सुरंग में ठेल रहे हैं जहाँ उन्हें जान माल की हानि के अलावा कुछ हासिल नहीं होने वाला है। हाँ मराठी- गैरामराठी के नाम पर राज की पार्टी को दोचार विधानसभा की सीटें अवस्य हासिल हो जा सकती हैं। कभी बाल ठाकरे ने भी यही फार्मूला अपनाया था अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए और अब राज जो कभी बालासाहेब के उत्तराधिकारी माने जाते थे आज उन्हीं की दवा उन्हें पिला रहे हैं.दरअसल राज को न मराठियों की भलाई से कुछ लेना-देना है और न ही उन्हें गैरमराठियों से कोई अदावत है. उस बेचारे को तो अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाना है. उस बेचारे के पास अपने चाचा बाल ठाकरे की दी हुई एक शिक्षा है, जिसे उपयोग कर वो अपना राजनीतिक वजूद बचाने की कोशिश कर रहा है. और तो उनके पास कोई राजनीतिक आधार है नहीं . अभी कल तक शिवसेना की विरासत सँभालने की उम्मीद में बाल ठाकरे की उंगली पकड़ कर घूम रहे थे परन्तु जब देखा कि शिवसेना की राजनीती की दुकान तो उद्धव के नाम की जा रही है तो बालासाहेब की उंगली छुड़ा कर भाग लिए. अब शिवसेना के राजनीतिक गर्भ में राज ने जो नफरत की तालीम पायी है वो उसी का उपयोग कर रहे हैं. परन्तु महाराष्ट्र के मराठी भाइयों को एक बात समझनी चाहिए कि राज और बाल ठाकरे दोनों ही मराठी हैं लेकिन उन्होंने एक दूसरे के हित का तो ध्यान नहीं रखा और किसी गैर मराठी ने तो उनका कुछ नहीं बिगाड़ा फ़िर वो गैर मराठियों के विरुद्ध क्यों हो गए. सिर्फ़ इसलिए कि इस देश में जहाँ जनाधार विहीन लोग प्रधानमंत्री बने हुए हैं वहां जाति,धर्म,भाषा,साम्प्रादय और क्षेत्रीयता के नाम पर लोगों को बांटना बेहद आसान है. न महाराष्ट्र सरकार राज के इस नफ़रत फैलाओ अभियान पर लगाम लगना चाहती है और न ही केन्द्र सरकार. मनमोहन सिंह ने तो इसपर एक बयान देना भी उचित नहीं समझा. सवाल उठता है कि अगर सरकार कुछ नहीं कर रही है तो क्या हम आम लोग इसका विरोध नहीं करेंगे, चाहे हम मराठी हों या गैर मराठी. मीडिया भी राज के बयानों और उनकी सभाओं का बहिष्कार कर उनके मंसूबों पर बहुत हद तक अंकुश लगा सकता है. पर क्या ऐसा होगा ? देखते हैं.
Sunday, May 4, 2008
न्यूज चैनलों पर भारी पड़ता चौबीस घंटा
न्यूज चैनलों में जब चौबीस घंटे न्यूज दिखाने की होड़ शुरू हुई थी तो बड़ा शोर शराबा हुआ था । पल-पल की ख़बर! हर पल की ख़बर ! पर समय बीतने के साथ ये चौबीस घंटे इनपर अब भारी पड़ने लगे हैं। कहाँ से लायें इतनी ख़बर । फ़िर शुरू हुआ ख़बरों को बार-बार, लगातार दिखाने का दौड़ । पर इससे जो नया है वही न्यूज है वाला फंदा ही बदल गया। सुबह से शाम तक एक ही न्यूज जब तक कि कुछ नया हाथ न लग जाए । इसके बाद न्यूज को खींचने का दौड़ शुरू हुआ। समाचार की दुनिया में जिसे फॉलोअप कहा जाता है। जैसे सुनीता विलियम्स ने अन्तरिक्ष में जा कर न्यूज बनने लायक काम किया(मैं सुनीता की उपलब्धि को कम नहीं कर रहा हूँ) तो उनकी सारी पसंद नापसंद भी न्यूज बन गया । खाने में क्या पसंद है, नहीं है आदि-आदि। इनके सारे संबंधियों को पकड़ कर न्यूज बनाया जाने लगा। अभी एक मई को महाबली खली की घर वापसी पर जी न्यूज ने तकरीबन एक घंटे का कार्यक्रम दिखाया गया । उनके पैट्रिक गाँव में उनका मकान बन रहा है। अब खली न्यूज हैं तो उनका बनता हा माकन भी न्यूज हैऔर उसमें काम करने वाले मिस्त्री भी न्यूज है। खली के दोस्त भी न्यूज हैं और बचपन में खली लोटा लेकर कहाँ फारिग होने जाते थे शायद ये भी न्यूज है। पता नहीं इसे क्यूं छोड़ दिया उनलोगों ने। अभी एकाध सप्ताह पहले आजतक तो हाथ धोकर खली के पीछे पड़ गया था । उनकी हार की ख़बर भी उसी शान और जज्बे के साथ दिखायी जा रही थी जिस तरह क्रिकेट में भारत की जीत को दिखाया जाता है। इधर खुछ दिनों से टाईम पास करने के लिए आई पी एल नाम का झुनझुना हाथ लग गया है। वो भी अधनंगी लड़कियों के लटकों-झटकों वाला बिकाऊ झुनझुना । जब जी में आया बैठ गए झुनझुना लेकर । टाईम काटने के लिए ये चीजें भी जब नाकाफी रहीं तो मनोरंजन चैनलों की चीजें उठाकर पडोसने लगे । कभी धारावाहिकों की कहानी तो कभी लाफ्टर शोज के फुटेज । धारावाहिकों से डर कर यदि आपने न्यूज चैनल ऑन किया है तो यहाँ भी आपकी खैर नहीं है। सास बहू और साजिश को वहां नहीं झेला है तो यहाँ झेलिये । बच कर कहाँ जायेंगे। दाऊद के पीछे पड़े तो उसे इतनी बार दिखाया कि अँधा भी दाऊद को पहचान ले। कभी कभी तो ये न्यूज चैनल वाले ऐसा खौफ पैदा कर देते है कि पूछिए मत। प्रलय होने वाला है। सृष्टि ख़त्म होने वाली है। अरे भाई, सृष्टि जब ख़त्म होगी तब होगी , अभी से लोगों को क्यों हलकान कर रहे हो । भूत प्रेतों वाली चीजें तो अब न्यूज चैनलों का अहम् हिस्सा बन गयी हैं । और प्रस्तुतकर्ता भी पता नहीं कहाँ से ढूंढ कर लाते हैं। कहानी से पहले इन्हें देख कर ही डर लगता है। चैन से सोना है तो जाग जाओ । अरे भइया , जब जग ही गए तो सोयेंगे भूत या कत्ल देख कर? बलात्कार की खबर इतने उत्साह से दिखाते हैं कि क्या कहें। और हाँ, सबसे अद्भुत तो इनका ब्रेकिंग न्यूज होता है. ब्रेकिंग न्यूज- सोनिया गाँधी की नींद खुल गयी. ब्रेकिंग न्यूज- फलाने टीम की मीटिंग ख़त्म हुई. ब्रेकिंग न्यूज- राहुल गाँधी आज टहलने निकले . किसी दिन आप देखेंगे - बकरी ने बच्चा दिया - ब्रेकिंग न्यूज . ब्रेकिंग न्यूज की एक और खासियत है- यह कई चैनलों पर एक साथ दिखाया जाता है. एक और बड़ी मजेदार चीज होती है इन न्यूज चैनलों में. किसी मुद्दे पर बहस के लिए अतिथि बुलाये जाते हैं. अपेक्षा ये रहती है कि अतिथि बोलेंगे और प्रस्तुतकर्ता समन्वय का काम करेंगे परन्तु अतिथि बोलने के लिए मुंह खोलते ही हैं कि प्रस्तुतकर्ता बोल पड़ते हैं अतिथि को बीच में ही चुप करा दिया जाता है. और संयोग से बहस किसी नतीजे पर पहुँचता प्रतीत होता है तो इनका टाईम ही ख़त्म हो जाता है और अधिकांश बहस बिना किसी तीजे पर पहुंचे ही ख़त्म हो जाती है. आशा ये की जाती थी कि न्यूज चैनलों की बढती तादाद से पैदा हुई स्पर्धा से इनमें गुणात्मक सुधार होगा, कुछ अच्छी चीजें देखने सुनने को मिलेंगी पर हुआ इसका उल्टा . न्यूज चैनलों का स्तर दिन-बी-दिन गिरता ही चला गया . ईश्वर इन्हें सुधार की प्रेरणा दे.
Monday, April 28, 2008
मीडिया का कोई ईमान है कि नहीं
जब से हरभजन-श्रीशन्त चांटा विवाद हुआ है, मीडिया, खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हरभजन को विलन बनाने पर उतारू है। ये वही टीवी न्यूज़ चैनेल्स हैं जो साइमंड्स-हरभजन विवाद में साइमंड्स को विलेन और हरभजन को हीरो बताते नहीं थक रहे थे. तब इन्हें हरभजन में कोई बुराई नहीं दिख रही थी और आज उन्हें हरभजन में एक भी अच्छाई नहीं दिख रही है. उनके लिए उन्ही तीखे शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है जो ऑस्ट्रेलिया विवाद के समय साइमंड्स और हेडेन आदि के लिए किए जा रहे थे. इनके पास रटे रटाये हैं संवाद हैं जिनमें सिर्फ़ नामों को परिवर्तित भर कर दिया जाता है. एक तरफा रिपोर्टिंग में न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं है. कोई भी न्यूज़ चैनल मामले को निष्पक्ष रूप से देखने को तैयार नहीं है. हरभजन उग्र हैं पर श्रीशन्त भी क्या कम उग्र हैं उन्हें भी तो बेवजह नाक फुलाकर पंगा लेने की आदत है. हरभजन ने यदि थप्पड़ चलने जैसा अतिवादी कदम उठाया तो उन्हें उकसाने की प्रक्रिया कितनी तीखी रही होगी इसपर विचार करने के लिए कोई तैयार नहीं है. थप्पड़ मारना अगर आइपीअल के कानून में बड़ा अपराध है तो इसके लिए उकसाये जाने पर क्या कोई सज़ा नहीं है. कोई ये क्यों नहीं कह रहा है की गलती श्रीशांत की भी थी भले ही हरभजन ने अपना आपा खोकर बड़ी गलती की है. अगर गलती के लिए सज़ा है तो सज़ा दोनों कोई मिलनी चाहिए. सुनने में आया है कि हरभजन ने श्रीशंत को मैच से पहले ही उनकी इस आदत के ख़िलाफ़ चेतावनी दी थी परन्तु श्रीशंत बाज नही आए। एक कप्तान जो अपने तीनो मैच हार चुका हो उसे मैच हारने के बाद यदि आप उकसाने जायेंगे तो वह बन्दा अपना आपा तो खोयेगा ही. मैच के दौरान उकसाये जाने की प्रक्रिया को तो फ़िर भी एक हद तक जायज़ ठहराया जा सकता है, परन्तु मैच ख़त्म होने के बाद यदि आप विपक्षी कप्तान को जो की न सिर्फ़ आपका सीनियर है बल्कि देश के लिए आपके साथ कंधे से कन्धा मिला कर खेलता भी है उकसाने जायेंगे तो आप थप्पड़ के तो हक़दार हैं ही. और जो सबसे अहम् बात है वो ये कि जब श्रीशंत बात को तूल नहीं देना चाहते हैं ओर हरभजन को भी अपनी गलती का अहसास है तो फ़िर पंच की कहाँ जरूरत है । ओर उनकी टीम मैनेज्मेन्ट के लोग हरभजन पर बैन लगवा कर क्या हासिल करना चाह रहे हैं. यही कि देश एक बेहतरीन स्पिनर की सेवा से वंचित रह जाए. आप क्षेत्रीयता, छुद्र स्वार्थ और अहम् की वजह से अपने ही देश का नुकसान करना चाह रहे हैं और इसके दूरगामी प्रभाव की ओर भी नहीं सोच रहे हैं कि भविष्य में यदि फ़िर कोई हेडेन या साइमंड्स हरभजन को माँ की गाली भी देता है तो क्या हरभजन इसका प्रतिवाद कर सकेंगे. क्या इसके बाद हरभजन एक मैच जिताऊ गेंदबाज बने रह सकेंगे? और मै अनुशासन की बात करने वाले अनुशासन के रहनुमाओं से पूछना चाहता हूँ कि मैच देखने जा रहे छोटे छोटे बच्चों को अधनंगी लड़कियों का डांस दिखलाकर कौन सा अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे हैं।
आई पी एल -मनोरंजन या साजिश?
आख़िर वही हुआ जिसका डर मुझे तब से सता रहा था जबसे आई पी एल नाम का तमाशा शुरू हुआ था । मेरा शुरू से ही ये मानना रहा है कि आई पी एल का ढांचा तैयार ही किया गया है भारतीयों के बीच दरार पैदा करने के लिए । पहले भी भड़ास पर कई लोगों ने ऐसी आशंका जतायी है। हरभजन और श्रीशांत के बीच जो हुआ , वह इस आशंका का एक छोटा सा नमूना है। कुछ और नमूने भी लोगों ने देखे होंगे । द्रविड़ जैसे सम्मानित खिलाड़ी के चौके पर उनके घरेलू मैदान के आलावा कहीं ताली तक नहीं बजती है, सहवाग जैसे लोकप्रिय खिलाड़ी के तूफानी अर्धशतक पर स्टेडियम में सन्नाटा छाया रहता है, अनुरोध करने पर भी एक ताली तक नहीं बजती है । खेल इतना स्वार्थपरक तो कभी नहीं था। दरअसल ये स्वार्थपरता नहीं बल्कि क्षेत्रीयता का जहर है जो लोगों के दिलों में इतने गहरे उतार देने की साजिश है जिसमें एक देश एक लोग का जज्बा घुट कर दम तोड़ दे । मेरी बात अभी कुछ अजीब सी लग सकती है परन्तु इसपर गहरे सोचने की जरूरत है। अब, हरभजन-श्रीशांत का ही मामला लें । किसकी गलती है किसकी कितनी गलती है यह बहस का मुद्दा हो सकता है परन्तु घटना के बाद की प्रतिक्रियाएं सोचनीय हैं । केरला क्रिकेट संघ द्वारा हरभजन को सजा देने की मांग और मुंबई इंडिंयंस द्वारा हरभजन के सपोर्ट में खड़े होना कुछ अच्छा संकेत नहीं है। आई पी एल को डिजाईन ही इस तरह से किया गया है कि इससे क्षेत्रीयता को बढ़ावा मिले। लोग किस खिलाड़ी के लिए ताली बजा रहे हैं यह मुख्य नहीं है , वो सिर्फ़ अपने क्षेत्र के लिए ताली बजा रहे हैं , यह मुख्य भी है और चिंतनीय भी। एक राज ठाकरे काफी नहीं था जो आठ-आठ राज ठाकरे देश को बांटने के लिए कमर कसे खड़े हैं । और हम हैं कि अधनंगी लड़कियों को देख कर ताली बजाने में मशगूल हैं। क्योंकि हम विकसित हो रहे हैं ।
सृष्टि चक्र
असंख्य बिन्दुओं का संग्रह
संग्रह का गमन और पड़ाव
क्षण -क्षण ।
बटोरता अनुभवों के कण
व्यक्तित्व का निर्माण करता
गमन करता
बिन्दुओं का वह संग्रह
क्षण क्षण ।
उसका गमन और पड़ाव
गति और स्थिति उसकी
दोनों एक ही क्षण
विलक्षण ।
ऐसे ही असंख्य विलक्षण
और विश्व गया है बन
बिन्दुओं पर बैठा
इस विश्व को देखता
हमारा मन ।
मन जिसने पूर्णत्व को
इश्वरत्व को
कर दिया है कण कण ।
कविता के रंग
कविता महज शब्द नहीं
अनुगूंज है महासमर की
और कविता लोक की
अंतरात्मा की आवाज भी ।
कविता अभिव्यक्ति है
लोकवेदना की और कविता
आक्रामक प्रतिवाद का
आह्वान भी ।
कविता एक खूबसूरत तर्जुमा है
जीवन के झंझावातों का
और कविता
एक आकर्षक संगीत भी ।
कविता धूप सी
व्याप्त भी हर शू
और कविता
परिवर्तन की पैरोकार भी ।
कविता पराजयबोध
नहीं है कदापि
कविता अपराजेयता की
मिशाल है बल्कि ।
कविता पलायन नहीं है
जीवन संघर्षों से
कविता तो
उम्मीद का उजाला है।
कविता जीवन की टीस भी
और कविता
कवि की
जीजीविषा का संगीत भी ।
कविता संकेत है भविष्य का
और कविता
लेती प्रेरणा है
भूत से भी।
और कविता न कमल
न गुलाब न कैक्टस ही
कविता तो हर मौसम में
महकता गेंदे का फूल है।
Thursday, April 10, 2008
दिल्ली सरकार अब तेल बेचेगी
आज की ताजा ख़बर. शीला दीक्षित अब तेल बेचेंगी. उनके पास और कोई चारा भी नहीं है. अगर वो तेल नहीं बेचेंगी तो उनकी सरकार तेल बेचने चली जायेगी. कल से दिल्ली की गलियों चौराहों पर शीला दीक्षित और उनके मंत्रिमंडल के लोग- तेल ले लो, ६० रूपये किलो तेल ले लो- चिल्लाते नजर आयें तो चौंकिएगा नहीं. मुई राजनीति होती ही है ऐसी. कब किसे तेल बेचना पड़े और कब कौन तेल लेने चला जाय, कुछ कहा नहीं जा सकता है. मंहगाई की मार वैसे तो आम आदमी को झेलनी पड़ रही है पर जनता के पलटवार का क्या नतीजा होता है, शीला दीक्षित जानती हैं और बीजेपी वाले तो इसे भुगत चुके हैं, इसी दिल्ली में. प्याज जैसी निर्जीव चीज कैसे स्वयंभू समझने वाले नेताओं को धूल चटाती है, श्रीमती दीक्षित जानती हैं. आख़िर उन्हें भी तो गद्दी मंहगाई की वजह से हुई पलटवार से ही मिली थी. लिहाजा श्रीमती दीक्षित ने सोचा कि इससे पहले कि उनकी सरकार तेल बेचने चली जाए क्यों न वही तेल बेचना शुरू कर दें. और हाँ, न्यूज़ चैनलों वाले भाइयों की तो बांछें खिल गयी होंगी, इस ख़बर से . कोई आश्चर्य नही अगर भाई लोग टीआरपी के चक्कर में दिल्ली सरकार के मंत्रियों को बाकायदा तेल बेचने के लिए बैठने पर राजी कर लें. मुम्बईया फिल्मों की तरह राजनीति में भी भेड़चाल का बोलवाला है ये तो सभी जानते हैं. अब अगर कल को मनमोहन सिंह एंड पार्टी भी श्रीमती दीक्षित से क्लू ले कर, तेल ले लो-तेल ले लो, शुरू कर दें तो मुझे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा, आपको हो तो हो क्योंकि सत्तामोह भइया आदमी से कुछ भी करा सकता है. बहरहाल हम तो बैठ कर तेल देखेंगे और तेल की धार देखेंगे.