मेरे आलोचक मित्र ने कहा
तेरी तथाकथित कविता के
भाव तो अच्छे हैं पर
इसमें भाषाई प्रान्जलता की
कमी बेहद खलती है
तुम्हें तो वास्तव में
कवि कहना भी एक गलती है।
आलोचक मित्र को मैं अपनी
मजबूरी कैसे बतलाऊँ
कविता में अपनी मैं
भाषाई प्रान्जलता कहाँ से लाऊं ।
भाषाई प्रान्जलता का नमूना तो
हमारे नेता दिखा रहे हैं
अच्छे भले लोगों को भगोड़ा
दलाल , चिरकुट और शिखंडी बना रहे हैं ।
पर यह तो सिर्फ अभी झांकी है
असली फिल्म तो आनी अभी बाक़ी है ।
नेताओं की भाषाई प्रान्जलता की
दुहाई है दुहाई है
बात अभी लौंडों के नाच तक ही पहुंची है
माँ बहनों की बारी अभी कहाँ आई है ।
वह दिन दूर नही जब संविधान को
और संशोधित किया जाएगा
स्पीकर को भी माँ लगा कर
संबोधित किया जाएगा
महामहिम को भी विशेष उपमा से
नवाजा जाएगा
पद की गरिमा के अनुकूल ही
उन्हें संबोधन दिया जाएगा
आख़िर फ्रीडम ऑफ़ स्पीच है भैया
कौन इन्हें रोकेगा
गन के तंत्र के नुमाईंदे हैं
भला कौन इन्हें टोकेगा
यह लोकतंत्र है श्रीमान
यहाँ सब चलता है
जोकरों,शिखंडियों,दलालों से
हमारा प्रजातंत्र बनता है
गरिमा चाहे कितनी भी गिरे
हमें कुछ नही कहना है
हम तो जनता जनार्दन हैं
हमें तो मूक दर्शक बने रहना है ।
Thursday, December 27, 2007
भाषाई प्रान्जलता
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